सृजना की महत्ता
सृजना की महत्ता
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क्यों हुआ है खून का पानी ?
करते रहते सब मनमानी….
जोशीले शब्दों के संग में
क्यों रक्त अब बहता नहीं ??
लुट जाती नारी की अस्मत !
लुट रहे संस्कार हैं…………
नर ही अब नारी का दुश्मन ,
क्यों मानव अब कहता नहीं ??
कभी दामिनी ! कभी निर्भया !
नित होती लहूलुहान हैं……..
बाजारों के बीच लुट रही !
क्यों रक्षक अब रहता नहीं ??
भोर हुए जब सहमी रहती ,
तब रातों का क्या कहना है !
कहाँ दब गये सद्गुण सारे ?
क्यों निर्झर अब बहता नहीं ??
नजरें होती गिद्धों के सम ,
नारी-मांस नोचने को…..
इन गिद्धों का वध करने को
क्यों ईश्वर अब कहता नहीं ??
चीख रही है नारी अब तो
नगर-नगर चौराहों पर….
पद्मिनी भी बनी निशाना !
क्यों सृजना की महत्ता नहीं ??
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— डॉ० प्रदीप कुमार दीप