ढ़लता सूरज
आधार छंद-लावणी
सूर्य डूबता हो या उगता,दोनों ही मन को भाता ।
कहीं बैंगनी कहीं केसरी,सातों रंग निखर आता।
बादल भी रंगीन दिखाई,देता तब कितना सुन्दर,
सूरज जिस पल धीरे-धीरे,थक कर अपने घर जाता।
शाम सुहानी दूर क्षितिज पे,सूर्य किरण को ले जाती,
धीरे धीरे भूमंडल पर, फिर घना अँधेरा छाता ।
शाम सुहानी करवट लेती,बदले तब सभी नजारे,
बंद हुये हैं घर दरवाजे,विहग नीड़ में सुसताता।
दिन और रात का क्रम चलता,रवि के आने जाने से,
रोज वक्त पे आना जाना,कभी नहीं भूला पाता।
दिवस रात का प्रणय मिलन है,रमणीक सृष्टि की रचना,
यही एक संगम जीवन का,जो सारे रूप दिखाता।
जीवन के साचे में ढलना,मनुज महज मिट्टी का है,
ऐसा समय सभी पर आता,ढ़लता सूरज बतलाता।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली