सूर्पनखा- गुरू सक्सेना
कृति- सूर्पनखा
रचनाकार – गुरू सक्सेना (नरसिंह पुर)
समीक्षक- डॉ राजकुमार रंजन -आगरा
“सूर्पनखा” हास्य-व्यंग्य के दिग्गज कवि गुरूसक्सेना का
खण्डकाव्य है । यह खण्डकाव्य सात सर्गों में विभक्त है ।
खण्डकाव्य किसी न किसी विशिष्ट घटना पर आधारित
होता है उसी घटना को केन्द्रबिन्दु मानते हुए घटनाक्रम
आगे बढ़ता है । सूर्पनखा रामचरित का एक पात्र है, जिसे
कवि ने शीर्षक देकर उसके सनातन भारतीय नारी के
त्याग तपस्या के साथ रामभक्त के रूप में प्रस्तुत किया है
“सूर्पनखा” खण्ड काव्य के प्रारम्भ में अपनी बात में
गुरू सक्सेना ने यह प्रकट किया है कि”सम्पूर्ण परिवेश में
कथाप्रवाह को जोड़ने में कवि – कल्पना का सहारा भी लिया गया है जैसा भी है सूर्पनखा के बहाने रामकथा की
गंगा में बार – बार डुबकी लगा कर उसमें पाप क्षार – क्षार
कर रहा हूँ । किसी को कैसा लग रहा है इसकी मुझे कतई
चिन्ता नहीं है । मानव – जीवन के अंतिम पड़ाव में जो अनमोल वस्तु मिलनी थी, वह रामकथा के रूप में मिल
गयी।” उपरोक्त कथन यह सिद्ध करता है कि इस कथा
के नायक श्रीराम ही हैं बेशक कथानक का केन्द्रबिन्दु
सूर्पनखा हो ।
प्रथम सर्ग का प्रारम्भ नायक की स्तुति के विपरीत
अपनी कविता – काल में मंच पर किये गये कवि – कर्म की
आत्मस्वीकृति से किया गया है कि “हे कवि ! अभी तक तूने मंच पर व्यर्थ का प्रलाप भर किया है अब तू राम राम
चरित के निकट आकर कुछ अर्थपूर्ण काव्य – कौशल दिखा ।”
कवि से सूर्पनखा यह प्रश्न करती है कि मेरा कवियों ने कामुक रूप क्यों प्रस्तुत किया ।मुझे निन्दनीय
क्यों माना मेरे अन्दर छुपी हुई वेदना , ममता , भक्ति को
क्यों नहीं पहचान पाये मैं भी किसी की पत्नी, बहिन माँ
थी । यह मनहरण छ्न्द एक प्रश्न तो खड़ा करता ही है –
“कवियों ने आज तक कामातुर कहा मुझे,
किसकी सजायी सेज ,कोई तो बताओ रे !
गर्भवती नारी के पति को ही मार दिया,
उसकी मनोदशा का अर्थ तो लगाओ रे !
प्रतिशोध लेने नरसिहं खोज रही थी मैं,
था परीक्षा का ढंग , काम पै न जाओ रे !
जहाँ पर राम वहाँ , काम नहीं होता कभी,
तुलसी के मानस में मन तो रमाओ रे !
अब हम मनोवैज्ञानिक स्तर पर बात करें तो काम
हर प्राणी में मूलरूप से विद्यमान रहता है । १४ सहज
प्रवृतियाँ हैं, जिसमें काम भी एक महत्वपूर्ण मूल प्रवृति है।
यदि वह सुन्दरी थी पति के मारे जाने पर भटक रही थी
सुन्दर वर के खोज में थी तो स्वाभाविक है कि उसमें
कामातुरता होगी ही लेकिन कवि ने यह स्थापित किया कि
पति का बदला श्रीराम ही ले सकते थे इसलिए वह राम के
निकट आना चाहती थी, चाहे जो भी हो उस निकटता के
कारण ही आज हम सूर्पनखा की चर्चा कर रहे हैं ।
नारी की मर्मभेदी पीड़ा को व्यक्त करने से पहले
कवि ने केवल माँ शारदा को ही नहीं मनाया है वरन् माँ के
नौ रूपों को मनाकर रचना की सिद्धि तक पहुँचने की
कोशिश की है । रामजी के चरणों में इस ग्रन्थ की शब्द
शक्तियों को रखकर कविकुल गुरु बाल्मीकि,बाबा तुलसी
दास के साथ विप्र – वंदन भी किया है । राम चरित का
बखान करने के लिए हनुमान जी का भी वंदन किया है ।
उसका छ्न्द दृष्टव्य है –
“सिया-राम लखन को हिय में बसाने वाले
ज्ञान , गुण , निधि अतुलित बलधाम हो ।
शंकर सुवन , माता अंजनी के लाल प्यारे ,
लाल देहधारी लाल ललित ललाम हो ।
आप राम चरित के रसिया हो भक्तराज ,
राज – काज रत निर्भीक निष्काम हो ।
सूर्पनखा की व्यथा मिटा दो बजरंग बली,
मेरी कविता में अविरल राम नाम हो ।”
उपरोक्त छ्न्द की विशेषता यह है कि कवि श्री हनुमान की आराधना के साथ-साथ नारी की पीड़ा को हरने का निवेदन तो करता ही है अपितु उन भक्तवत्सल भगवानराम का नाम अविरल रूप से आता रहे , यही भक्ति कीपराकाष्ठा है क्योंकि राम का नाम तारने वाला है ,अनेकों संशयों और भ्रमों को नष्ट करने वाला है ।
“रामनाम सुन्दर करतारी ,संशय विहग उड़ावनहारी ।”
रामचरित मानस
इस प्रकार वे बजरंगबली को साधते हुए द्वितीय
सर्ग की ओर बढ़े हैं । सभी जानते हैं कि गुरु सक्सेना
हास्य-व्यंग्य के कवि हैं अतः द्वितीय सर्ग में सूर्पनखा-
रावण संवाद में हँसी – ठट्ठा, उलाहना, व्यंग्य भरी बातें
यत्र-तत्र- सर्वत्र दिखायी देती हैं ।
“सीता – स्वयंवर में जनकपुरी को जाते,
जगजीत योद्धा जैसा जलवा दिखाये हो ।
अपने में बड़े बलवान वीर बने आप ,
वीरता, बड़ाई वाले बाजे बजवाये हो ।
मैंने तो सुना है रामजी ने शिवचाप तोड़ा ,
आप की चली न एक जाके पछताये हो।
यहाँ से तो हाले-फूले गये थे वहाँ से नाथ ,
मुँह लटकाये खाली हाथ लौट आये हो ।”
प्रश्नोत्तरों के बीच एक जबाव रावण का भी सुन
कर आपको भी हँसी आ जायेगी । यह कवि का कौशल
ही कहा जायेगा ।
“बहाने बनाता नहीं चाप ऐसे तोड़ देता,
जैसे कोई हामी तोड़े कमल के नाल को ।
टूट जाता कमल तो फूट जाता तेरा भाग्य,
डाल देती कन्या गले में वरमाल को ।
वरमाल पहनी तो ब्याह भी कराना होता,
सबके समक्ष जानकी से तत्काल को ।
सौतिया की डाह से बचाने के लिये ही मैंने,
धनुष न तोड़ा सिर्फ तेरा किया ख्याल को ।”
इसी कथा -प्रवाह में सूर्पनखा ने अपने पति को
रावण द्वारा मारे जाने की जो कथा सुनायी है वह हृदय
को द्रवीभूत करने वाली है । रावण ने अपने बहनोई को
राज्य शासन की बागडोर सोंप दी थी कारण,रावण विजय
पथ पर युद्ध करता हुआ सुदूर निकल जाता था ।सूर्पनखा
का पति नियमपूर्वक शासन चलाता था ,जो भी सरकारी कर्मचारी भ्रष्टाचार में लिप्त पाये जाते या जनता पर अत्याचार करते उन्हें कार्य से विरत कर देता था । यही बात उन्हें खराब लगी उन्हीं कर्मचरियों ने षड़यन्त्र के तहद
रावण के कान भर दिये कि तुम्हारा बहनोई तुम्हारा राज
हड़प लेगा । रावण ने क्रोध में आकर चन्द्रहास ने सूर्पनखा
के पति का सिर काट दिया ।
यहाँ कवि ने तत्कालीन राज्य शासन को आधुनिक
परिवेश से जोड़ा है । आज भी राज्य शासन में ऐसा ही भ्रष्टतंत्र है ,जिसका गठजोड़ पुलिस ,प्रशासन ,सत्ताधारियों
से है । ईमानदार व्यक्ति को षड़यन्त्र के तहद न कि पूरे तंत्र से बाहर कर दिया जाता है बल्कि जान से से भी हाथ
धोना पड़ता है । “सूर्पनखा”;के माध्यम से इस भ्रष्टतंत्र का
खुलासा कराना सूर्पनखा के चरित्र को उभारता भी है साथ ही राजमद में चूर व्यक्ति अंधा हो, विवेकहीन हो जाता है ।यह घनाक्षरी इसी बात का उल्लेख करती है-
“राजमद चढ़ने से हो गया विवेकशून्य ,
नाक सड़ी जानी न सुगंध दुर्गन्ध को ।
कान, कान नहीं रहे , समझे न शब्दभेद ,
छेद रहे जाने नहीं छंद, छल – छंद को ।
चरबी के कारण न बीस आँखें देख सकीं,
सत्य का पहाड़ स्वच्छ शासन प्रबंध को ।
नाक,कान,नेत्र,ज्ञान भूले नाक-कान से ही,
गर्त में मिलाऊँ एक दिन मद अंध को ।”
कवि ने “सूर्पनखा” खण्डकाव्य के माध्यम से यह
स्थापित करने का यत्न किया है कि भगवान श्रीराम ने
निश्चरविहीन धरणी का संकल्प लिया था वहीं सूर्पनखा ने
भी अपने पति की हत्या बदला लेने के लिये रावण को
मारने का संकल्प लिया था अतः वह रामचरित मानस में
इसी भाव का प्रदर्शन करती है-
“तो सम पुरुष न मो सम नारी”
कवि का कहना है कि इस रूप में वह रामभक्त हो गयी थी
रावण के मारे जाने तक वह राम विजय की कामना करती
रही समाज के निन्दनीय वचन भी सुनती रही वहीं अन्य पूर्ववर्ती कवियों की अपेक्षा कविवर गुरु सक्सेना ने
उसके व्यक्तित्व को अंत तक उभारा है –
“सूर्पनखा धन्य तेरा रामभक्ति भाव प्रेम,
चित्रगुप्त वंश अंश हंस बन गायेगा ।
फिर तेरे चरित्र को न शक से देखे कोई ,
सक्सेना गुरु ऐसी कलम चलायेगा ।
पति – प्रतिशोध में सती के अंग – अंग कटे,
लाश शक्ति पीठ बने कोई तो बतायेगा ।
पति हेतु तूने जो ज़िन्दा अंग कटवाये,
तेरा पद पाने सारा जग ललचायेगा ।
कथा का प्रवाह लंका – दहन तक पहुँचता है यहाँ कवि का छन्द ज्ञान अपने चरम तक पहुँच गया है ऐसा
लगता है कि हम लंका दहन को खुली आँखों से साक्षात
देख रहे हों ।
“लपटों ही लपटों में लिपट गयी है लंक ,
लाल देहधारी किलकारी मारी लूम-लूम ।
कनक-कंगूरन को किलक-किलक कपि,
तमक – तमक तोड़े त न न न तूम-तूम ।
आग के बवंडर आकाश लौ घुमड़ रहे,
धरन – धरन घेरि घ न न न घूम – घूम ।
पवन प्रचंड झकझोरा मारे झूम – झम ,
पानी के परत बोले स न न न सूम ।
षष्टम सर्ग में कवि की लेखनी काव्यात्मक दृष्टि से
चरम सीमा की ओर जाती हुई प्रतीत होती है । सेतु के
निर्माण में रिच्छराज जाम्बबान से श्रम के महत्व को
कहलवाया गया है ।
“एकता का बल और श्रम का महत्व क्या है?
हम कैसे आने वाली पीढ़ी को बतायेंगे ।”
इसी क्रम में विपक्षी को कूटनीति और राजनीति के
सहारे कैसे परास्त किया जाय, इसका वर्णन भी किया
गया है –
“करें ऐसा काम राम नाम का प्रभाव दिखे ,
रिपु – मन मलीन जरूर होना चाहिए ।
पाँच दिन में बनाएँ सागर का पुल हम,
पाषाण – खण्ड भरपूर होना चाहिए ।”
सप्तम सर्ग में कवि ने एक छ्न्द में रामनाम के प्रभाव
को रावण के मुख से भी कहलवाया है प्रसंग यह है कि मन्दोदरी राम की प्रशंसा में कहती है कि देखिए राम का प्रभाव पत्थर भी तैरने लगे तो रावण बोला यह कौन – सी
बड़ी बात है मैं अभी पत्थर तैरा के दिखा देता हूँ वह कुछ बुदबुदाया पत्थर तैर गया । इस छंद के माध्यम से यह
मनोहारी वर्णन देखिए-
“मन्दोदरी बोली नहीं विद्या मालुम नाथ ,
पत्थर तैराया पास कौन – सी भसम है ।
कैसे आपके हाथों ने किया ये चमत्कार ,
वैसे ही लंका की आज स्थिति विषम है ।
प्रिये मैने पत्थर से कहा,जब छोडूँ मैं तो ,
तैर जाना पानी में ये कसौटी की रसम है ।
आदत के अनुसार डूब मत जाना बेटा !
यदि डूब गये तुम्हें राम की क़सम है ।
इसी प्रकार अनेक छंदों में धर्म-अधर्म में भेद,अधर्म
पर धर्म की विजय,क्षत्रिय धर्म ,घमंड का नाश आदि का
वर्णन किया है । राम के प्रभाव और क्षमा न माँगने की
स्थिति में वह अपनी अंतिम परिणित समझ गया था ।
“कुल इतना ही सोचती है कुल नष्ट होगा ,
माँग ली क्षमा तो खुशियों से भर जाऊँगा।
धरती पै अमर न हुआ न कोई आज तक,
नाम सुन मौत का मैं कैसे डर जाऊँगा ।
मेरा हित सोचती ,ये क्यों नहीं सोचती है ,
जिन्दा रहके भी कौन यज्ञ कर जाऊँगा ।
दीनबंधु, दीनानाथ, दयासिन्धु निज हाथ ,
मारेंगे तो भजन बिना ही तर जाऊँगा ।
सूर्णनखा लक्षमण को शक्ति लगने पर पुत्र की भाँति विलाप करती है । लंकापति रावण को मारने से पहले
श्रीराम शक्ति की आराधना करते हैं । इन छंदों के क्रम में २१७,१८,१९,२०,२१,२२ तक देवी – आराधना के अद्भुत
छंदों में से एक छंद देखिए-
“साधना को साध सिंह वाहिनी सहायक हो ,
शाख राख शाकम्बरी शान रण में बना ।
षड़ानन माता षड़यन्त्र शठ का मिटा दे ,
षोड्स कला दिखा, वितान धर्म का तना ।
हंस – वंश – अंश की हितैषी होके हेमवती,
हृदय में हर्ष का हिलोरा दे घना – घना ।
वर्ण – वर्ण में देवी के नाम ले लेकर राम ,
पूजन के साथ महाशक्ति को रहे मना ।
इस प्रकार युद्ध के वर्णन में वीर रस, वीभत्स रस
जिसमें उत्साह , घृणा, जुगुप्सा के भाव आये हैं वहीं आध्यात्म में शांत रस की उद्मावना हुई है शृंगार की
सूक्ष्म दृष्टि से भी गुरु ने कलम को धार दी है । इस खण्ड
काव्य में घनाक्षरी के अनेक रूप प्रकट हुए हैं अलंकारों
में अनुप्रास के अन्तर्गत वृत्यानुप्रास,अन्त्यानुप्रास,रूपक,
विभावना,रूपक,यमक आदि अनेक अलंकारों की सृष्टि
हुई है बिम्ब- योजना,ध्वन्यार्थ व्यंजना यत्र – तत्र – सर्वत्र
दृष्टिगोचर होती है कलात्मक दृष्टि से यह ग्रन्थ उत्तम ही
नहीं है वरन् सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी
महनीय है।इस पौराणिक ग्रन्थ में कवि ने हिंदी भाषा की एक अन्य भाषा उर्दू – शब्दों के प्रयोग से भी परहेज नहीं किया है यह उदारता हिन्दी भाषा को समृद्ध करने में सहायक रही है । कवि की क्रान्तिकारी सोच ने निन्दित नारी – पात्र को भी अपनी कलम की कोर से महत्वपूर्ण और नारी – सम्मान का प्रतीक बना दिया है सबसे बड़ी बात यह है कि इस नारी को भी राम की भक्ति में लीन कर प्रणम्य बना दिया है ।
समीक्षक
डॉ राजकुमार रंजन
५९/१२१ ब -२ अजीत नगर गेट ,
वी .आई. पी. रोड , आगरा -२८२००१
मोबाइल – 9639841312