सूरज
सूरज!
कहाॅं जा छिपे हो तुम?
क्या किसी अंधेरी गुफा में?
कैसे खोजूं तुम्हे?
यह शरारत अच्छी नहीं।
प्रकृति में सब त्रस्त,
कितना कुछ अस्त- व्यस्त।
लौट आओ शीघ्र ही,
देखो सब है प्रतीक्षारत।
कहीं किसी ने तुम्हें
कैद तो नहीं कर दिया?
बादलों की कारा में
पर यह मुमकिन नहीं।
किसकी हिम्मत
सहे तुम्हारे तीखे तेवर।
लिख रहे हैं एक खत,
पढ़ते ही चले आना।
रूठना छोड़कर,
अहम् को तोड़कर,
प्यार का परस पाना।
पुलकित हो उठोगे तुम,
देखकर मनुहार।
कितनी बेसब्री से
कर रहे हैं हम,
तुम्हारा इंतजार।
बहुत खेल हुआ,
अब बस करो।
आ भी जाओ यार,
लेकर सुनहरी
धूप का उपहार।
—प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव ,
अलवर(राजस्थान)