सूरज को
गीतिका
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सूरज को बाहों में भरने की चाहत।
उन्मुक्त हृदय से नभ में उड़ने की चाहत।
वक्त बहुत से पनप रही मेरे मन में,
बादल को मुट्ठी में करने की चाहत।
दूर बहुत तक फैला सुन्दर नीलगगन,
पंख पसारे ऊंचे उड़ने की चाहत।
बीत गया है वर्ष सभी का मनभावन,
नूतन के स्वागत में बढ़ने की चाहत।
भेद भुलाएं आपस में मिलजुल जाएं,
कर लें पूर्ण प्रगति के सपने की चाहत।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य