सूरज का ताप
जल रही धरा शहर और गांव में
तप रहा है सूर्य पूरे ताव में!
सूखता है कंठ मिले नहीं छांव भी,
कठिन चलना पथिक का
छाले हुए हैं पांव में !!
चैत भी बीता नहीं
दिखने लगे तेवर अभी,
क्या होगा जेठ,बैसाख
वृक्ष विहीन पगडंडिया
उजाड़ रिक्त गांव में !
दम तोड़ते हैं जीव- जंतु
और मनुजता हारती,
प्रकृति प्रकोप से
पथ भास्कर पखारती।
सूखते हैं ताल, नदिया
सागरों का दबाव है!!
शुष्क वसुधा भी देखो
रिक्त होती जा रही।
आभूषणों को छीनकर
दुर्भाग्य अश्रु बहा रही।।
बंजर जमीन हो रही
आधुनिकता के प्रभाव में !
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