सूखी नहर
सुखी नहर_
वो नहर
यादों का गुलदस्ता लिए :
अविचल आज भी खड़ी है_
मगर सूखी पड़ी,
टकटकी लगाए
मौन पीड़ा लिए
कह रही हो,
कहाँ गए मेरे नयन प्रिय नीर..?
मेरे दोनों तीरों पर
सूखती फसलों में,
लहलहाती बालियों में जान लाकर,
खेतों की क्यारियों से अठखेलियाँ करती,
पीटर पेटर गड़गड़ की आवाज के साथ
उछलती कूदती सलिल धाराएं…!
जलचर उभयचर खाद्य श्रृंखलाएं,
मेढकों और सुक्ष्म प्लवक भक्षी कीटों संग,
मांगुर गरई और मरैल जैसी वायुश्वासी मछलियां,
अपने दोनों सिंघो के सहारे
धान की धारदार हरी पत्तियों पर सरकते घोंघे ,
नुकीली लम्बी चोंच फैलाये
सारस हंसावर और पनकौए,
समूचा पारितंत्र आज बिखरा पड़ा है..
सिर्फ बालुओं की मोटी परत ,
और उसके अंदर ,
विभिन्न आकृतियों के गड्ढे बनाते मिटाते ,
लाल गुबरैले की टोलियाँ ,
मुँह चिढ़ाती दिखती है ।
थोड़े दिनों पहले तक,
गौरेये की झुंड कभी कभी,
अपनी चोंच रगड़,
उसी बालू में सूखा स्नान करती…
आज कृत्रिमता भरी महफिल से ,
बहुत दूर चली गई लगती है ।
चार दशकों पुरानी यादों को समेटे,
निष्प्राण सी सुखी नहर _
बेजान स्वर में मुझसे कह रही हो,
बैराज के फाटक फिर से कब खुलेंगे
और कब मुझ दरिद्र के दिन बुहरेंगे…?
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०७ /०३ /२०२४,
फाल्गुन,कृष्ण पक्ष,द्वादशी,बृहस्पतिवार
विक्रम संवत २०८०
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