सूखी डाली पतझड़ से पूछती
**सूखी डाली पतझड़ से पूछती**
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सूखी हुई डाली पतझड़ से पूछती,
पत्ते न झड़ते तो वो भी नहीं सूखती।
पथिकों को देती शीतल घनी छाँव,
पहले हरी भरी हरियाली में झूमती।
समृद्ध,खुशहाल और भरपूर यौवन,
फल,फूल, पत्तियों से लदी झुकती।
विहग को मिलता था स्थायी निलय,
टेढ़ी मेढ़ी सी होकर तने पर घूमती।
उजड़ गया उसका जब आशियाना,
तिरछे नैनों से उस ओर रहती घूरती।
हरे,पीले पत्ते हो जाते लाल,गुलाबी,
सूर्य की किरणें पश्चिम में थी डूबती।
आते हैं याद हो हसीन रंगीन नजारे,
अब बेचैनी में अंतिम सांसे घुटती।
मनसीरत को याद है सुहावनी बयार,
जन मन के चैन को थी खूब लूटती।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)