“सूखा सावन”
सूख गया आवरण बादल का आज क्यों,
तप रही है आज वसुधा बेसुध हो,
मर गई संवेदनाएं सब ऋतुराज की,
उड़ रहें हवाओं में बस कण धूल की।
प्यासा है श्रावण बिन फुहार के,
फट गया है पेट भू की आज क्यों,
है ये परिवर्तन कोई शुभ संकेत नहीं,
खो दिये सौंदर्य वृक्षों ने डाल की।
कैसे जिएं लोग भला उच्च तापमान में,
हरियाली नहीं दिखती कहीं सिवान में,
श्रृंगार अधूरा रह गया सावन का अब,
कौन,किसको सुनाएं व्यथा हाल की।
जल रहें हैं सब दिशाएं आग में,
गाती नहीं है अब हवाएं राग में,
है विकट संकट बनी ये शूल सा,
आती नहीं है गंध अब पराग में ।।
राकेश चौरसिया