सुहाना सफर
गाँव जाने की तैयारी और कौथिग-मेलों की बहार हो,
दिल मे उमंग और अपनो से मिलना जैसे त्यौहार हो ।
मिट्टी सबसे अच्छा रंग है वो भी अपनी जन्मभूमि का,
उसमें पूर्वज हैं, बचपन है, यादें हैं, जीवन की अनुभूति का ।
तो सुबह 7:30 बजे रोडवेज का स्टेशन पर आना ,
और मेरा भी झट से भागकर आगे की सीट पर बैठ जाना ।
‘ यहां कहाँ बैठ रहे हो पीछे बैठो’ परिचालक ने डांट दिया,
सहम कर तुरंत उठा और पीछे वाली सीट पर बैठ गया ।
सवारियों का आना और खाली सीट पर बैठना भी हो ही रहा था,
फेसबुक पर पोस्ट “Traveling to Pauri” मैं अपडेट कर ही रहा था।
कि अचानक गेट पर आगमन हुआ एक नवयुवती का ,
सुंदर, साधारण, अल्प श्रृंगार और स्वरूप मानो राजकुमारी देवसेना सा..
चेहरे पर चिंता के भाव और आँखे खाली सीट ढूंढ रही थी,
मध्यम स्वर में वह परिचालक से कुछ पूछ रही थी ।
धीरे धीरे मेरी तरफ उसके कदम बढ़ रहे थे ,
ईधर सीट में बैठे बैठे मेरे प्राण सूख रहे थे ।
अचानक मन्द और सहज स्वर मेरे कानो पर पड़ा
‘एक्सक्यूज़ मी मुझे उस तरफ की सीट मिल जाएगी ?’
( मतलब उसे खिड़की वाली सीट चाहिए )
‘अफकॉज़’ यह सीट आपको ही दी जाएगी..
उसके थैंक्यू कहने से मैं थोड़ा शरमा गया ,
कुछ देर बाद गाड़ी का भी चलना शुरू हो गया ।
अर्द्ध खुली गवाक्ष से आती सर्द हवा उसकी जुल्फें बिखेर रही थी..,
उन उड़ती जुल्फों से आती डव शैम्पू की खुश्बू मेरे हृदय को भेद रही थी.. ।
उसे लगा कि मैं असहज लग रहा हूँ तो उसने झट से अपनी जुल्फों को क्लैचर में कैद कर लिया..
उसके चेहरे के सौम्य भाव और शर्मीलेपन ने मेरा मन मोह लिया..
इतना धीमा स्वर कि उसे दो बार पूछना पड़ा आप कहाँ तक..?
– मैंने कहा पौडी
मैंने भी पूछ लिया, क्या आप भी पौडी तक?
उसने कहा हां जी..
बातों का सिलसिला चल रहा था ,
कभी वो मुझसे तो कभी मैं उससे पूछ रहा था ।
गानों से लेकर फिल्मों तक ,
समाचार में छाये दंगों तक ।
बातों ही बातों में न जाने कब तीन धारा आ गया ,
गाड़ी रुकी तो कुछ देर के लिए हमारी चर्चाओं पर विराम लग गया ।
चाय नाश्ता हुआ, गाड़ी में वापस आये , इस बार उसने मुस्कुराते हुए कह दिया..
सुनिए.. आपको बैठना है उस तरफ तो आप बैठ सकते हैं..
मैंने कहा हम ईधर ही ठीक है, हॉट सीट पर केवल आप ही बैठ सकते हैं ।
दोनो एक दूसरे को देख मुस्कुराने लगे ,
पुनः चर्चाओं मे बात करने लगे ।
मैंने कहा “मेरी बातों से आप बोर तो नही हो रहे हो ?”
“अरे नही नही आप ऐसा क्यों सोच रहे हो..?”
‘ सुदी त कुई नि देखदु कै सणी…. ‘
मैं मन ही मन नेगी जी के गीत गुनगुना रहा था,
उन कुछ पलों में चारों तरफ के वातावरण को मैं अनसुना कर रहा था ।
उस दिन मन मस्तिष्क की शायद कोई सीमा ही नहीं थी ,
आज से पहले सफर में ऐसी कोई सहयात्री भी तो नहीं थी ।
बातों ही बातों में उसने अपना नाम ‘अदिति’ बताया,
मैंने भी तुरंत फोन on करके फेसबुक पर अपना प्रोफाइल दिखाया ।
प्रोफाइल देखकर वो हँसी तो फिर हँसी ने थमने का नाम न लिया,
प्रोफ़ाइल देखकर आखिर अचानक इसे क्या हुआ..?
‘मिट्ठू’ भी कोई नाम हुआ ? इतना कहकर वो फिर से हँसने लगी ,
हँसते हँसते वो बार बार मेरी तरफ देखने लगी..
फिर पौडी शहर जितना नजदीक आने लगा,
सफर समाप्त होते होते मन उदास होने लगा.. ।
उसे अपने ननिहाल जाना था और मुझे अपने गाँव,
सोचा उसे भी अपनी गगवाडस्यूँ घाटी घुमा लाऊँ ।
खैर.. जाते जाते फ़्रेंटियर से एक चॉकलेट खरीदकर उसके हाथों में थमा गया ,
फिर मुस्कुराते हुए हमने एक दूसरे को बाय बाय कह दिया..
( हमारी किस्मत में कोई DDLJ के अमरीश पुरी भी तो नही है जो उस समय उसे कह दे, जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी )
उसके भोले नयन, भावशून्य मुखारविन्द, रक्ताभ अधर स्मित..
ये सब मुझे उच्छवास तक स्मरण रहेगा ,
जिंदगी के कई सुहाने सफरों में भी
इस सफर का शायद मुश्किल से ही वर्णन होगा ।
उसकी अवधारणात्मक दृष्टि उसके साथ वार्तालाप बहुत अच्छी थी,
एक लंबी अवधि के बाद सफर में, सहयात्री कोई अच्छी थी ,