सुलगते से दिल हैं लगी सिसकियाँ
किसी की यहाँ कब चलीं मर्ज़ियाँ
सुलगते से दिल हैं लगी सिसकियाँ
लुटी प्यार की फिर से है पालकी
मोहब्बत पे आकर गिरी बिजलियाँ
बना कब से गोदाम दिल दर्द का
हुयीं दिल की भी सैंकड़ों किरचियाँ
किसी और की थी न ग़लती कोई
दरारें भी लायीं ग़लतफ़हमियाँ
दिया रास्तों में जलाया तो है
बुझाने की काविश करें आंधियाँ
सियासत है गन्दी सताती बहुत
ग़रीबों की लाखों लगी अर्ज़ियाँ
अमीरों की नज़रों में चुभती रहीं
जली रात फिर सैंकड़ों बस्तियाँ
अंधेरों में सजते हैं बाज़ार क्यों
सजी क्यूँ यहाँ जिस्म की मंडियाँ
न ‘आनन्द’ बदला न बदले कभी
मिलें चाहे बेशक़ उसे धमकियाँ
– डॉ आनन्द किशोर