सुरा का सुर
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पान करता सुर,सुरा था गान करता।( सुर=गायन के स्वर)
इन्द्र के दरबार में सुर और सुरा ।
अप्सराएँ नृत्य करती देवता रसपान करते
सोमरस जो देवता का,वह हमारा है सुरा।
सृष्टि था परमात्मा थे वेद सारा बेसुरा
सोमरस का लोभ इनमें देखिये था यूँ भरा।
राक्षसी प्रवृत्तियों से देवता का मन भरा।
मोहिनी के रूप पर मोहित यह कैसा देवता।
और इस भूलोक पर के लोग भी।
वेदना के नाम पर पीने को कहते हैं दवा।
हर खुशी में इस सुरा को सम्मिलित कर
गर्व को गौरव कहे व इस सुरा को संपदा।
बस सुधा के नाम पर मदिरा उठाए माथ पर
नृत्य करते गुनगुनाते, दु:ख पी लेती सुरा।
किस तरह कितना जलाती आदमी को यह सुरा।
जान पाता आदमी जब,हो चुका रहता बुरा।
रात क्या कभी इस सुरा से हो सका है रश्मिमय?
दिन अगर पी ले सुरा तो सत्य हो जाय मिथ्या।
मिथक सुर का,पान कर ले जो सुरा तो ले बना ज्यों देवता।
और खुद अभिशाप देकर,खुद को कर ले भस्म एवं राख सा।
पान मदिरा का हरण करता रहा है तर्क,बुद्धि,तेज,व विवेक सारा।
धूल-धूसरित कर दिया आया किया महासाम्राज्य की पराकाष्ठा।
किन्तु,मदिरापन इठलाता किया है सभ्यता के चरम को ले।
और संस्कृति का बड़ा संस्कार बनकर।
मद्य,मदिरा या सुरा या सोम कह लिजै इसे,या अरुण-लब।
नियति इसका है रुलाना दोस्त बनकर।
सत्य को उत्तम,अधम मिथ्या को भी रहने न देता।
सारी ख़ूबियाँ आदमी का रक्त सा पी,सोख लेता।
दुर्गुणों की सूची में सेवन सुरा का मान्यवर।
मान्यवर की सूची में होता न मदिरा मान्यवर।
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