बसंत का स्वागत
बसंत का स्वागत
देख सखी झांका बसंत, अब तक जाने किस खोह में था
थे पुहुप-पौध मुरझाई रहे, जाने शीत में कहां छिपा था।
कोपल अब पौधन में दरसे, उद्यान हरित मुस्काई रहे हैं
कोयल की कूक सुना तुमने, खग-मृग सब हुलसाई रहे।
सुरभि सुगंधित चलन लगी, जहां बसंत के कदम पड़े हैं
प्रकृति नींद से जाग उठी, कुदरत ने अब अंगड़ाई ली है।
अलि डोलन लागे डारि-डारि, करते बागन की रखवाली
जित देखूं तित डोलि रहे हैं, कलियों से चिपटे मनमानी।
भ्रमरों से लदी-फदी है डाली, नशीली उनकी गूंज सुरीली
प्रेम मगन कलियन संग हे री! मुस्काती पुष्पन की लाली।
रस-गंध-रंग संग कलियां सारी, करतीं जस बसंत-स्वागत तैयारी
चलो सखि! हम भी थाल सजाएं, करें बसंत का स्वागत हम भी।
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—-राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक /स्वरचित।