सुबह सुबह सूरज और मैं —
सुबह सुबह जब मैं सूरज के सामने होता हूँ
स्वयं को बड़ा ही छोटा महसूस करता हूँ
बहुत छोटा—
देखने में
सूरज एक जरा सा गोला
सारे जहाँ को रोशन करता है— सारा संसार है
क्योंकि सूरज है
मगर कभी इठलाता नहीं
कभी कद नहीं बढ़ाता
सबको एक सा देता है
खुद दहकता है जीवन भर
तिनके तिनके को जीवन देने के
लिए—
हम तो कुछ भी नहीं
जरा एक सीढ़ी चढ़े
और
सातवें आसमान पर!
सूरज भगवान हैं
फिर भी जमीं पर झांकते हैं
मैं सूरज तो न बन सकूँगा
पर
सोच में कहीं एक किरण आए
और
मुझे थोड़ा सा बड़ा बना दे
मुझमें ऐसी कोई योगधारा बहा दे।
मुकेश कुमार बड़गैयाँ
“कृष्णधर द्विवेदी ”
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