सुन मानव !
हे मानव नीरस पथ पर क्यों भटक रहा,
तेरी जीवनधारा कंकड़ पत्थर से क्यों अटक रहा,
तू जिस जीवन को अपना माना है,
बता तू उस पथ को कितना जाना है,
वह निर्गंतव्य का एक ओझल पथ है,
वह तीन दिशा का अश्व जुड़ा रथ है,
है करता जिस पर तू अंधविश्वास,
क्षणिक अस्तित्व भी है क्या आसपास,
प्रकृति को भी है तेरी व्यथा ज्ञान,
तू भी कुछ उस बोध शब्द पहचान,
तेरे सम्मुख है तेरा जीवन पड़ा,
फिर चक्रव्यूह में क्यों पीसने को है खड़ा,
मत बना स्व प्रवृत्ति को एक पहेली,
उसका क्या वो है एक चंचल अलबेली,
है अभी तू कितनों के ऋणी,
कह गए सुन! कर्तव्य के गुणी,
छोड़ो जो था ही नहीं तुम्हारा ,
क्यों आंख मूंद दौड़ रहा है मारा मारा ,
तू बन सकता है एक वटवृक्ष विशाल सघन ,
तू ही सोच करता किसका चयन ,
चल! उठ ,लिख फिर से जीवन कविता,
निज कर्मों से उतार निश्छल सरिता ,
चट्टान से याचक बन क्यों घुटक रहा,
हे मानव नीरस पथ पर क्यों भटक रहा,
तेरी जीवनधारा कंकड़ पत्थर से क्यों अटक रहा ।
उमा झा