सुनो मैथिल! अब सलहेस कहाँ!
सुनो मैथिल! अब सलहेस कहाँ,
वीर कथा की वह हुंकार कहाँ?
हरियाली में फूलों की गंध नहीं,
माटी में अब वो रंग नहीं।
जिस धरती पर गूंजते थे,
सलहेस के शौर्य के किस्से,
उसी भूमि पर आज बिखरे हैं
सपने हमारे खंडित, टुकडे़ ।
कहाँ गए वो साहस के दिन,
सिंह के जैसे जो खड़े थे कुलवीर,
भाईचारे की पवित्र रसधार,
जिनके हृदय में बसा था प्यार।
अब तो केवल बंजर खेत,
धूमिल हुई वह सुंदर रेत,
सलहेस की वीरगाथा खोई,
सुनो मैथिल, यह वेदना रोई।
उठो मैथिल! फिर से पुकारो,
सलहेस का वो खड्ग सँभारो,
माटी पुत्र में शौर्य भरो,
मिथिला की शान उभारो।
हर एक दिल में साहस का बीज,
हर बस्ती में प्रेम का गीत,
सुनो मैथिल! फिर से सजाओ,
सलहेस का सपना, फिर अपनाओ।
–श्रीहर्ष—-