सुनो पहाड़ की….!!! (भाग – ३)
आकृति भी मानो मेरे हृदय में उठे प्रश्न को जान गयी, तुरन्त ही उसने कहना आरम्भ किया कि क्या तुम नहीं पहचान सकीं मुझे ? मैं वही हूँ जिससे मिलने तुम यहाँ खिंची चली आयी हो, अरे मैं पहाड़ हूँ। वही पहाड़ जिसकी कल्पना में तुम अक्सर अपने घर पर भी खोयी रहती हो। बहुत लगाव है न तुम्हें मुझसे, मेरी वादियों से, हरियाली से और यहाँ के मस्त मौसम से, इसलिये अवसर पाते ही चली आती हो यहाँ। लेकिन यह तो बताओ यह जो यहाँ के वातावरण से इतना लगाव है तुम्हारा तो क्या कभी सोचा भी इस वातावरण के बारे में, कभी भूल से भी आया है ख्याल इसे सँजोये रखने या इसकी देखरेख करने का। जिस प्रकार तुम्हें मेरी याद आती है, जरूरत होती है, उसी प्रकार मुझे भी जरूरत है तुम्हारे साथ की, देखरेख की। किन्तु तुम मनुष्य शायद यह कभी समझ नहीं सकोगे क्योंकि तुम तो यहाँ मेरे आँगन में मौजमस्ती के लिये चले आते हो। तुमने कहाँ कभी हमारे (प्रकृति) बारे में सोचा है और सच पूछो तो हम तो बहुत खुश थे अपने जीवन में। बहुत सादगीपूर्ण जीवन था हमारा, एकदम मस्त और खुशहाल, हरा-भरा सौन्दर्यपूर्ण। कलकल बहती नदियाँ, झूमते पेड़ और शीतल ताजा पवन जो सदियों से हमारे साथी, हमारी प्रसन्नता के साक्षी थे। तुम मनुष्यों ने….!!
नींद में खोयी मैं पहाड़ से उसकी गाथा सुनने में मगन थी कि अचानक मुझे भूकम्प सा आता महसूस हुआ और झटके से मैं उठ बैठी। देखा कि अर्पण मुझे कंधे से हिला कर उठा रहा था। मैं चकित सी उसे देखने लगी तो वह हँसते हुए कहने लगा कि कब तक सोती रहोगी दीदी ? अब तो रात के खाने का समय भी हो गया है। अब तक मैं नींद से पूरी तरह बाहर आ गयी थी।
आश्रम के नियमानुसार भोजन के लिये हाल में जाकर अपनी थाली स्वयं लगाकर पंगत में बैठकर भोजन करना था। अतः हम तीनों यानि मैं, अर्पण और अमित पंगत में बैठकर भोजन करने लगे किन्तु इस बीच मेरा सारा ध्यान नींद में पहाड़ से हुई वार्ता में ही अटका हुआ था। भोजन के बाद हम तीनों अपने कमरे में लौट आए। आपस में अगले दिन का कार्यक्रम तय करके हमने अपने रात्रि के आवश्यक कार्य निपटाये और कुछ मनोरंजन के उद्देश्य से अपने – अपने मोबाइल में व्यस्त हो गये और नींद आने पर मोबाइल रखकर एक बार फिर मैं सुबह होने तक के लिये सो गयी।
(क्रमश:)
(तृतीय भाग समाप्त)
रचनाकार :- कंचन खन्ना, मुरादाबाद,
(उ०प्र०, भारत)।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार)।
दिनांक :- ०८/०७/२०२२.