सुनो पहाड़ की….!!! (भाग – २)
आश्रम के रिसेप्शन काउंटर पर पहुँचकर हमने पहले से बुक कराये गये अपने रूम की चाबी प्राप्त की, अपनी आई डी एवं सिक्योरिटी जमा करायी और आश्रम में हमें दिये गये रूम का ताला खोलकर सामान सहित भीतर चले आये। कमरे में प्रवेश करने के साथ मन को असीम शान्ति का अनुभव हुआ, जो बेशक आश्रम के पवित्र वातावरण का प्रभाव था।
यह आश्रम ऋषिकेश में त्रिवेणी घाट के समीप स्थित है और एक धार्मिक ट्रस्ट द्वारा संचालित है। यहाँ का रखरखाव, साफ-सफाई, खान-पान एवं अन्य सभी आवश्यक कार्य मानव सेवा भाव से किये जाते हैं। अतः समस्त वातावरण बहुत व्यवस्थित व आत्मिक शान्ति प्रदान करता है। हम इस स्थान पर दूसरी बार आये थे।
इससे पूर्व लगभग चार वर्ष पहले जब हम यहाँ आये थे, तब मेरी माताजी एवं दूसरे छोटे भाई सहित हम छह लोग थे। अतः यहाँ का समस्त वातावरण व व्यवस्था पहले से ज्ञात होने से यहाँ पहुँचने इत्यादि में कोई दुविधा नहीं हुई थी। रूम के साथ अटैच्ड बाथरूम सहित रूम आवश्यक. फर्नीचर से युक्त था। हमने अपना सामान सैट किया और थोड़ा आराम किया जाये, ऐसा सोचकर अपना-अपना बिस्तर पकड़ लिया।
बिस्तर पर लेटते ही अर्पण और अमित एक बार पुनः अपने – अपने मोबाइल में बिजी हो गये किन्तु मेरा इरादा पूर्णतया विश्राम का था, इसलिये मैं आँखें बंद करके लेटी हुई थी।
लेटने के कुछ देर बाद ही नींद का एहसास होने लगा कि कानों में एक अजीब गड़ – गड़ाहटपूर्ण आवाज सुनायी देती प्रतीत हुई, जिसे पल भर तो समझ नहीं सकी। फिर ऐसा लगा मानो कि कहीं बादल गरज से रहे हैं। कुछ और देर में बंद आँखों में कोई अस्पष्ट आकृति सी आकार लेने लगी, समझने का प्रयास कर रही थी कि आकृति ने कहना आरम्भ कर दिया, “आखिर आ ही गयीं तुम दोबारा यहाँ। कब से मचल रही थीं न मन ही मन में यहाँ पहुँचने को।” अचम्भित सी हो गयी मैं, कुछ सोयी कुछ जागी, सोच में पड़ गयी इस आकृति को लेकर।
कौन थी, क्यों चली आयी थी मेरे आराम में दखल देने ? मन में प्रश्न उठने लगे।
(क्रमशः)
(द्वितीय भाग समाप्त)
रचनाकार :- कंचन खन्ना, मुरादाबाद,
(उ०प्र०, भारत) ।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार) ।
दिनांक :- १८/०६/२०२२.