सुनो पहाड़ की….!!! (भाग – ११)
शाम को एक बार फिर हम घूमने निकले। मौसम अभी भी बहुत खुशगवार था। बहुत ठंडी हवा चल रही थी। कभी-कभी अचानक गिरती कोई बूँद और आसमान में भटकते बादल बारिश दोबारा हो सकती है, ऐसा बयान कर रहे थे। मेरी तबीयत को देखते हुए अर्पण मुझे पहले डाॅक्टर के पास ले गया और ऐसिडिटी का इंजेक्शन लगवाया। तत्पश्चात हम रामसेतु की ओर आ गये और घूमते हुए हम मधुबन आश्रम के निकट पहुँचे तो मैंने अर्पण व अमित से मधुबन आश्रम जोकि एक मंदिर व रेस्टोरेंट के रूप में बना है, देखने की इच्छा जतायी।
यह आश्रम व इसमें स्थित मंदिर भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है। मंदिर में जाने के लिए सीढ़ियों से ऊपर जाना पड़ता है। हम भी ऊपर पहुँचे और मंदिर में भगवान के दर्शन किये। ऊपरी मंजिल पर बनाया गया यह मंदिर बहुत सुन्दर है। विशेष रूप से मंदिर में स्थापित मूर्तियाँ एवं कलाकृतियाँ। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण के जीवन को विभिन्न कलाकृतियों द्वारा दर्शाया गया है। इस आश्रम में सुबह-शाम भगवान श्रीकृष्ण की आरती का आनन्द ले सकते हैं। यह आश्रम इस्काॅन मंदिर के नाम से भी प्रसिद्ध है। आश्रम में कुछ समय बिताने एवं स्मृति के रूप में कुछ तस्वीरें लेने के पश्चात हम संध्या आरती में सम्मिलित होने के विचार से गंगा घाट की ओर आ गये। मौसम बहुत मस्त होने के साथ ठंडा भी हो गया था। हवा बहुत सर्द व तेज होने से मुझे सर्दी लगने लगी तो मैंने वहाँ से अपने लिये एक शाल खरीदकर ओढ़ ली। दो-चार अतिरिक्त शाल यह सोचकर खरीद लीं कि मम्मी एवं बहनों को उपहार स्वरूप दे दूँगी। फिर हम आकर घाट पर बैठ गये।
आज घाट का दृश्य बहुत अद्भुत था। पहाड़ के उस ओर डूबता हुआ सूरज और गंगा में दिखती उसकी छवि बहुत मनोरम प्रतीत हो रही थी। कुछ देर पश्चात आरती आरम्भ हो गयी। यह घाट पिछले दिन वाले घाट से अलग था। यहाँ आरती का दृश्य भी अधिक मनोहारी था। काफी लोग आरती में शामिल थे। लग रहा था कि वे ग्रुप के रूप में यहाँ आये थे। एक भजन मंडली भी घाट पर मौजूद थी। आडियो प्लेयर पर भक्ति संगीत बज रहा था और आरती में संगीत के साथ सब भावविभोर नृत्य में मगन, गंगा में प्रज्वलित दीपों का जगमगाता स्वरूप, सुन्दर प्राकृतिक संध्या का अद्भुत नज़ारा, सचमुच सब कुछ बहुत आलौकिक रूप लिये था। हमने भी दीप प्रज्वलित कर माँ गंगा को अर्पित किया। आरती के बाद प्रसाद वितरण हुआ। सभी के साथ प्रसाद एवं वातावरण की मधुरता का आनन्द लेते हुए घाट से वापसी का मन नहीं हो रहा था। किन्तु वापस लौटना तो था, हम भी बाजार होते हुए आश्रम लौट आए।
अगले दिन दोपहर में वापसी के लिये ट्रेन पकड़ ली किन्तु मन तो वहीं गंगा घाट के मनोरम दृश्यों सहित ऋषिकेश भ्रमण की मधुर स्मृतियों से घिरा था। इन सभी सुहानी स्मृतियों के मध्य हृदय में अगर टीस सी थी तो उसकी वजह थी, प्रकृति एवं पहाड़ से मनुष्य का अंधाधुंध खिलवाड़ जो पहाड़ की आकृति के रूप में हृदय को व्यथित कर रहा था।
इन सब विचारों के मध्य लौटते समय मेरे हृदय में २०१८ में मेरी ही लेखनी द्वारा लिखी एक रचना पर्यावरण-संरक्षण रह-रहकर उभर रही थीं :-
सह-सह अत्याचार मनुष्य के हुई धरा बेहाल,
यहाँ-वहाँ पर आ रहे नित्य नये भूचाल,
नित्य नये भूचाल हिमालय डोल रहा है,
प्रकृति पर मानव-अत्याचार की परतें खोल रहा है,
भागीरथी में बह रहे बड़े-बड़े हिमखण्ड,
सूरज की किरणें भी अब होने लगी प्रचंड,
होने लगी प्रचंड धरा का ताप बढ़ा है,
प्रगति-प्रगति कह मानव विनाश के द्वार खड़ा है,
द्वार खड़ा कर रहा मन ही मन चिन्तन,
रहे सुरक्षित जो धरा तभी रहेगा जीवन,
प्रगति से भी पूर्व आवश्यक “पर्यावरण-संरक्षण”।
(समाप्त)
(अंतिम भाग)
रचनाकार :- कंचन खन्ना,
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत)।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार)।
दिनांक :- २७/०८/२०२२.