सुनो पहाड़ की….!!! (भाग – १०)
पहाड़ अपनी व्यथा कहता चला जा रहा था और मैं मगन उसे सुन रही थी। साथ ही समझने का प्रयास भी कर रही थी कि नींद में अचानक बादलों के गरजने का एहसास सा हुआ और नींद टूट गयी। बाहर तेज बारिश हो रही थी। रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। कुछ देर ख्यालों में उलझने के पश्चात मैं पुनः सो गयी।
अगले दिन सुबह चाय के बाद तैयार होकर हम एक बार फिर त्रिवेणी घाट की तरफ निकल आये। आज मौसम अत्यधिक सुहाना था। रात की बरसात के पश्चात बादलों एवं धूप की आवाजाही मानो आँख-मिचौली खेल रही थी। हवा में अजब ठंडक व ताजगी थी। गंगा किनारे का वातावरण बहुत मनमोहक था। घाट पर घूमते हुए हम एक बड़े पेड़ के नीचे आकर ठहर गये।
वातावरण में ठंडक एवं गंगा के तेज बहाव को देखते हुए अर्पण व अमित ने नहाने का विचार छोड़ दिया। वे अपने-अपने मोबाइल में तस्वीरें खींचते हुए बातचीत में लगे हुए थे। जबकि मैं गंगा के उस पार पहाड़ पर दृष्टि जमाये रात के ख्यालों में उलझी थी। पहाड़ अपनी ऊँचाई व जंगल सहित सामने खड़ा था। गंगा के उस पार दिखते पहाड़ पर मानव प्रगति के अधिक चिन्ह दिखाई नहीं पड़ रहे थे। जंगल ही दृष्टिगोचर हो रहा था। किन्तु जंगल इतना घना नहीं लग रहा था और पहाड़ पर अलग-अलग स्थानों पर विभिन्न कारणों से हुआ कटान व पहाड़ में मिट्टी दरकने से पड़ी बड़ी- बड़ी दरारें स्पष्ट दिखाई दे रही थीं। साथ ही दिखाई दे रहा था पहाड़ पर फैला कचरा जो निश्चित रूप से मनुष्य की गतिविधियों का परिणाम था।
यह सब सोचते हुए मुझे ऋषिकेश आने पर एक दिन पूर्व की जंगल की यात्रा का स्मरण हो आया, तो ध्यान आया कि उस ओर भी रास्ते में गुजरते हुए हमने बहुत कूड़ा-करकट यहाँ-वहाँ फैला देखा था जो हम मनुष्यों की गतिविधियों के कारण ही एकत्र हुआ होगा। इन सब बातों का विचार करते हुए मुझे महसूस हो रहा था कि पहाड़ से मेरा वार्तालाप बेशक कल्पना ही रही हो, परन्तु वह कल्पना पूर्णतया सत्य पर आधारित थी।
मैं विचारमग्न थी कि अर्पण ने मुझे पुकार कर चौंका दिया, वह आश्रम लौटने के लिये पूछ रहा था। मेरे सहमत होने पर हम सब बाजार होते हुए आश्रम की ओर लौट चले। वापसी में हमने बाजार में कुछ खाया-पिया, कुछ खरीदने के विचार से बाजार घूमें, लेकिन कुछ खरीदने का इरादा नहीं बना तो हम आश्रम लौट आये। अब तक दोपहर हो गयी थी। अतः हमने थोड़ा आराम करने का मन बनाया और अपने कमरे में आकर आराम करने लगे। वैसे भी मुझे अपनी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही थी। ऐसीडिटी महसूस हो रही थी।
(क्रमश:)
(दशम् भाग समाप्त)
रचनाकार :- कंचन खन्ना,
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत)।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार)।
दिनांक :- २७/०८/२०२२.