सुनैना कथा सार छंद
जनकराज की रानी
सुनैना की कथा
सार छंद 16/12
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एक बार लख समय सुहाना,
बोले यों त्रिपुरारी।
आज करो श्रृंगार हमारा,
पर्वतराज दुलारी ।
हीरा मोती सोना चाँदी,
मणि माणिक ठुकराना।
जैसा मैं हूँ वैसा मुझको,
दिल से प्रिये सजाना ।
सुन भोले की अटपट वाणी,
गौरा जी मुस्काईं ।
महाकाल का रूप सजाने,
बुद्धि विवेक लगाईं ।
काल काल जितने प्रकार के,
दुनिया में जहरीले।
सबको भूषण बना दिया है,
काले नीले पीले।
लेकिन फिर भी कमी रह गई,
पति प्रसन्न न पाये।
तब माता ने शंभु सजाने,
शेष नाग बुलवाये ।
बीच गले में हार बनाकर
अपने हाथ लपेटा।
सटक सटक जा रहे शेष जी,
माँ ने तुरत चपेटा।
नागराज भी कौतुक करते,
माँ को खिजा रहे थे।
मन ही मन में वंदन करते,
शिव पद भक्ति गहे थे ।
देख शेष की चंचलता को,
माँ ने क्रोध दिखाया।
यही बिगाड़ रहा सुन्दरता,
मैंने खूब सजाया।
शेषनाग का शीश पकड़,
गौरा ने दबा दिया है।
फनिपति अकड़े देख मात ने
बल प्रयोग किया है।
क्या लीला होनेवाली है,
अचरज में जिज्ञासू ।
तभी शेष की आँखों में से,
निकल पड़े दो आँसू।
जिनमें हुई एक आँसू से,
रानी जनक सुनैना।
शेषनाग की सुघर कन्या,
ध्यान कथा पर देना।
दूजे आँसू से सुलोचना,
सती प्रसिद्ध कहाई ।
मेघनाद की पत्नी बनकर,
जो लंका में आई ।
जग जननी जानकी किंतु हैं,
उनकी मातु सुनैना।
सबके चरण मनायें नत हो ।
दास गुरू सक्सेना।
गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश
3/10/23