सुख – डगर
कंहा से आए दुख के सागर
क्यूं बरसे संकट की बदरा
क्या है, क्यों है क्लेश जीवन मे
कंहा उद्गम इस पीडा की गंगा
कुंठा , जलन ,अधीर मन
हावी हो जाए जब नित्य कर्म
जंजालो सा बने यह जीवन
कठिन बने यह सरल डगर
चाह सुस्वादु खान पान की
मंहगे वस्त्रो से तन ढकने के आन की
सुसज्जित घर निवास शान की
चांद छूने के प्रण तमाम की
कटु बोल सुनने से आहत
मृदु व्यवहार की पाले चाहत
बिना कहे मन समझे कोई
स्नेहासिक्त कर धरे सर पालक
स्वार्थ सदा रोके है सुख
ईर्ष्या रोक लगाए प्रेम
कुंठा हरे है मन आनंद
क्रोध स्वास्थ्य बली चढ़ाए
सरल हो जीवनयापन
सेवा भाव हो भर भर
वाणी संयम का नियंत्रण
सदा चलाए सुख की डगर
संदीप पांडे”शिष्य” अजमेर