सुख की बरसात
इक रोज सुना मैंने धरती को बोल रही थी आसमान से
थकी हुई नजरों से धरणी देख रही थी मीत को अपने
बोली सुख की ऐसी बारिश कर दो अबकी साजन तुम
मेरी संतान के सब दुख हर लो बात मान लो मेरी तुम
कितने कितने दिन हैं बीते सहा नहीं जाता अब मुझसे
त्राहि त्राहि जो चहुँओर है सुना नहीं जाता अब मुझसे
अमन चैन की बारिश करके मुस्कान मेरी लौटा दो तुम
अपनी संतान को सेहत का आशीष दान में दे दो तुम
बड़ी देर तक सुनकर नभ ने हँसकर बोला वसुंधरा से
अब बरसात के साथ ही सजनी सुख लौटेगा वादे से
हरियाली की चूनर ओढ़े तू, सोलह जब श्रृंगार करेगी
संतान को अपने सुखी देखकर मन से तू खिल जाएगी
डॉ सुकृति घोष
ग्वालियर, मध्यप्रदेश