सुखम् दुखम
डा. अरुण कुमार शास्त्री / एक अबोध बालक / अरुण अतृप्त
शीर्षक – सुखम् दुखम
घृणा तुम्हारी कुछ काम न आएगी
जिन्दगी को तो वो छु ही न पाएगी
खून का घूंट पी पी के जो जी रहे हो
यही सोच अब जी का जन्जाल बन जाएगी //
दर्द में ही रहते हो दर्द का ही बिस्तर है
एक दिन इसी दर्द मे कब्र भी बन जाएगी
सबक सीखो अपने दोस्तों से
क्षमा, प्रेम, सहानुभूति, अपनत्व का //
आखिर को यही सब तुमहरी प्रेरणा बन जाएगी
सलाह है , मानो न मानो सखी
सलाह है , मानो न मानो सखी
बिन इन सब के तो तु एय मेरी सखी
कभी मुस्कुरा भी न पाएगी //
नेमतें हैं ये खुदा की, ये उनका करम है
जिसने मानी समझी दिल से,
उसी के साथ उस मालिक का सुयश धरम है //
चलो आज तुझको एक नई दुनिया दिखा के लाता हुँ
घृणा का चश्मा उतार देगा जो वो ज़न्नत दिखा के लाता हुँ //
साहित्य का समुद्र बेह्ता है सामाजिक समूहों में
नाम न पूंछ ना , कुछ भी हो नाम में क्या रखा है //
कभी जुड़ों इन से तो लिख के रख लेना
तु सीधा सीधा जिन्दगि से जुड जाएगी //
घृणा तुम्हारी कुछ काम न आएगी
जिन्दगी को तो वो छु ही न पाएगी
खून का घूंट पी पी के जो जी रहे हो
यही सोच अब जी का जन्जाल बन जाएगी //