सुई-धागा को बनाया उदरपोषण का जरिया
‘जीवन में कभी उदास मत होना
कभी किसी बात से निराश मत होना
जिंदगी एक संघर्ष है, चलता रहेगा
कभी अपने जीने का अंदाज मत खोना
जो हुआ, उसका गम न कर
रो-रो कर आंखें नम न कर
संघर्ष तो जिंदगी का एक अहम हिस्सा है
बिना जिसके जीवन, एक नीरस किस्सा है.’
ऐसे संदेश से ओतप्रोत तमाम प्रेरक कविताएं, बोध कथाएं और प्रेरक कथाएं लोग सुनते रहते हैं लेकिन यह सब जान-समझकर भी अच्छे से अच्छा पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी कई बार जीवन-संघर्ष से घबराकर अपना जीवन तक समाप्त कर बैठता है. बॉलीवुड के उभरते सितारे सुशांत सिंह राजपूत और महाराष्ट्र के प्रख्यात समाजसेवी स्व. बाबा आमटे की पोती शीतल आमटे की आत्महत्या ताजा उदाहरण हैं. अभिनेता सुशांत राजपूत ने अपनी फिल्म ‘छिछोरे’ में आत्महत्या न करने का संदेश दिया था. समाजसेविका शीतल आमटे भी विदर्भ के निराश किसानों को सकारात्मकता का संदेश देती थीं. संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें विश्व नवाचार दूत नियुक्त किया था. लेकिन इन्होंने भी आखिरकार जीवन की प्रतिकूलताओं के आगे घुटने टेक दिए लेकिन समाज में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो तमाम आर्थिक-पारिवारिक प्रतिकूलताओं के बावजूद अपनी जिजीविषा कायम रखते हैं. सच पूछा जाए तो समाज के सच्चे आदर्श तो यही होते हैं. प्रतिकूलता में भी वे अपनी राह निकाल लेते हैं. ऐसी ही जिजीविषा-जीवटता के धनी और संघर्ष को जीवन का अहम हिस्सा मानने वाले 64 वर्षीय मिलिंद गणवीर को हर रोज आप नागपुर शहर के पंचशील चौक स्थित महावीर मेवावाला दुकान के सामने आदिवासी गोवारी शहीद उड़ानपुल के नीचे बैठा देख सकते हैं. उन्होंने गत 50 वर्षों से सुई-धागा को अपने उदरनिर्वाह का जरिया बना रखा है. पूंजी के अभाव में उड़ानपुल के नीचे स्थित रोड डिवाइडर को ही अपना वर्कशॉप बना लिया है. यूं तो रोड किनारे और उड़ान पुल के नीचे और भी लोग मिल जाएंगे, पर उम्र के चौथे पड़ाव में भी तमाम दु:खों को अपने दिल में समेटे इस उम्रदराज व्यक्ति की कहानी अत्यंत मर्मस्पर्शी है. कुंजीलाल पेठ, रामेश्वरी रोड निवासी मिलिंद के पिताजी रेलवे में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे. पारिवारिक असंगतियों के चलते वे मात्र चौथी कक्षा तक ही पढ़ सके. जब उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी तो अपने मामाजी के साथ काम में जुट गए. उनके मामाजी भी पंचशील चौक पर रोड किनारे बैठकर कपड़ों पर रफूगरी का काम करते थे. बचपन से ही अपने मामाजी के साथ काम करते हुए ही इस हुनर को उन्होंने सीखा था. आज से 25 साल पहले उनके मामाजी किसी काम से शहर के बाहर गए तो फिर वापस ही नहीं आए. आज तक उनका पता नहीं चला कि वे दुनिया में हैं या नहीं. तब से आज तक उन्हें खोने का दुख है. उनसे ही प्राप्त हुनर रफूगरी का काम उनका और उनके परिवार के जीवन निर्वाह का जरिया बन गया. किसी समय पत्नी, दो बेटा और एक बेटी का भरापूरा परिवार था. अब मात्र दो ही सदस्य घर में हैं. बेटी की तो शादी हो चुकी है जबकि एक बेटा और पत्नी इस दुनिया में नहीं रहे. उन्होंने बताया कि कई बार जीवन से निराशा भी होती है लेकिन फिर लगता है जीवन-मरण तो विधि का विधान है. जब तक जान है तो जहान है.
कोरोना ने भयभीत जरूर किया, पर नसीहत भी मिली
जब वे यह सब बात कर रहे थे, तब सचमुच में उनकी आवाज में एक अटूट जिजीविषा साफ झलक रही थी. कोविड महामारी के चलते लगाए गए लॉकडाउन को उन्होंने गरीबों की कमर तोड़ देने वाला बताया. पिछले एक साल से उनकी आय चौथाई हो गई है. जैसे-तैसे गुजारा ही हो रहा है. इस बीच कंट्रोल का राशन उनके लिए काफी सहारा साबित हो रहा है. यह पूछने पर कि कभी कुछ दूसरा काम करने को सोचा, उन्होंने बताया कि जिस काम को वर्षों से कर रहे हों, उसे कैसे छोड़ सकते हैं. यह हुनर तो उनके दिलदिमाग रचबस गया है. उन्होंने मुझसे ही सवाल पूछ लिया कि जो काम आप कर रहे हैं, उसे आप छोड़ सकते हैं. बचपन से ही इस काम से जुड़ जाने से वे दूसरा हुनर भी नहीं सीख सके इसलिए वे अब इसी को अपना जीवन यापन का जरिया बना चुके हैं. शहर में चहल-पहल के बीच ग्राहकों का काम करते हुए उन सबसे मैं आत्मीय भाव से जुड़ गया हूं. पेशा तो क्या यह जगह छोड़ने की भी इच्छा नहीं होती. हुनर, पेशा, ग्राहकों और जगह से एक खास रिश्ता जुड़ गया है. यह मेरा सिर्फ उदरपोषण का ही जरिया नहीं बल्कि जीवन-संगीत बन चुका है. उन्होंने बताया कि उन्होंने कई समस्याओं को उन्होंने ङोला है लेकिन कोरोना ने तो भयभीत ही कर दिया लेकिन इसने यह नसीहत भी दी कि आड़े वक्त के लिए हमें बचत करके भी रखना चाहिए और सरकार, समाज को भी गरीब-जरूरतमंदों के लिए सामने आना चाहिए.
चौथी कक्षा पास उम्रदराज बुजुर्ग की जुबान से जीवन की इतनी गहरी यथार्थ व्याख्या सुनकर मैं भी स्तब्ध रह गया. तब जाना औपचारिक शिक्षा से कहीं अधिक अनुभव की शिक्षा सच के कहीं अधिक करीब होती है.
इनका जीवन संघर्ष यही साबित करता है कि पल-प्रतिपल हमें जीवन का आनंद लेते चलना है. हम अपने अनेक ऐसे खुश चेहरों को देख सकते हैं जिनकी खुशी के पीछे कोई वजह नहीं दिखती. वे बस खुश चेहरे हैं. चाहे वे दांत फाड़कर हंसने वाले दोस्त हों, हमारे कोई रिश्तेदार या फिर किसी बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन और कोई पब्लिक प्लेस में हंसते-खिलखिलाते बच्चे, किशोर, नौजवान, बुजुर्ग या महिलाएं.
कोई बेबाकी से यह नहीं बता सकता कि किसी के खुश रहने के पीछे क्या वजह हो सकती है या कोई क्यों खुश रहे? अगर हमने दुनिया में जन्म लिया तो संघर्ष तय है, कभी आराम है, कभी परेशानी है, कभी असफलता है तो कभी सफलता. हर परिस्थितियों और विभिन्न लोगों से कुछ सीख लेकर आगे बढ़ने का नाम ही जीवन है.
किसी शायर ने क्या खूब कहा है-
‘‘सिखा न सकीं जो उम्र भर
तमाम किताबें मुझे
फिर करीब से कुछ चेहरे पढ़े
और न जाने कितने सबक
सीख लिए..’’