सीमा के पार ~~
सोया था मैं नींद के चादर को ओढ़कर,
और स्वप्नों की रस्सी से जकड़ा हुआ था,
चांद तारे भी थे सारे, नींद से बेबस बड़े,
और थे इंतज़ार में, कब सूर्य आकाश चढ़े,
तभी ज़ोर की आवाज़ हुई, धरती अम्बर सब हिल गए,
और घड़ी के काँटों के साथ,वक़्त के कदम थे थम गए,
गिरी मेहनत की दीवारें चारों,और सपनों का क़त्ल हुआ,
और उम्मीदों की छत का भी, ईंट हरेक आज़ाद हुआ,
निकला लहू मासूमों के सर् से, कौन कहाँ गुमनाम है,
धक धक दिल की धड़कन सी,चलती गोली आम है,
रात्रि का वो आकाश, चमक उठा फिर रौशनी से,
लगता है सीमा पार, शत्रु अभी,टकराये थे हिन्द के सैनी से।
◆© ऋषि सिंह “गूंज”