सीख
लघुकहानी-सीख
रमा दसवीं कक्षा की छात्रा थी और अपनी दादी के साथ रहती थी।बचपन में ही रमा की माँ का देहांत हो गया था। रमा को अकेलापन ना महसूस हो इसलिये रमा के पापा ने उसे एक मोबाइल लाकर दे दिया था। उसके पापा आफिस में दिन भर काम करके थक जाते थे और घर आकर खाना खाकर सो जाते थे। रमा की पूरी दुनिया मोबाइल में ही थी। दादी बात- बात में रमा से कहती बेटा,”मोबाइल से दोस्ती अच्छी नहीं होती,जब मोबाइल नहीं था तू दिन भर किताबों को लेकर पढ़ती रहती थी।जब से तेरे पास ये मोबाइल आया है तबसे तेरे कमरे की सारी किताबें इधर -उधर बिखरी पड़ी हैं,याद रखना किताबों से सच्चा दोस्त इस दुनिया में हमारा कोई नहीं है।” रमा ने उनकी बातों को अनसूना कर दिया और अपनी नज़रें मोबाइल ऐप्प में गड़ायी रखी।
देखते -देखते अर्धवार्षिक परीक्षा हो गयी और रमा फ़ेल हो गई। लज्जित मन से रमा दादी के सीने लगकर रो रही थी और दादी से बोली,”दादी आप सही कहती थी कि मोबाइल हमारे जीवन का अहम हिस्सा नहीं है,ये हमारी सच्ची दोस्त कभी नहीं बन सकती।हमारी सच्ची दोस्त तो हमारी किताबें हैं। जिन्हें मैं यहाँ-वहाँ फेंक देती
थी। आज से आपकी हर बात सूनूंगी और बोर्ड परीक्षा में अच्छे नम्बरों से पास होकर दिखाऊंगी।”
दादी ने कहा,”बेटा मैने चूल्हा – चौका हमेशा किया,पर तुझे इतने छोटे समाज में बांधकर नहीं रखना,तुझे जीने के लिये विस्तृत आकाश देना है जहाँ तू अपने पंखों को फड़फड़ा कर मुक्त उड़. सके और अपने सपने साकार कर सके।” जिन्दगी मोबाइल से नहीं चलती।
रमा आत्मग्लानि में घुटते हुये यही सोच रही थी कि दादी की सीख कितनी अच्छी है।वो दबे पैरों से चलकर अपने कमरे के तरफ चल पड़ी,सारी किताबों की धूल साफ करके एक तरफ सहेजकर रख दिया। मोबाइल के सारे ऐप्प मिटाकर एक तरफ रख दिया,और मन ही मन दृढ़ निश्चय किया कि मुझे अपने मेहनत के सुनहरे पंखो के साथ उड़ना है,किताबों से नया ज्ञान लेकर चमकना है और समाज के आकाश में तारा सा बनकर सारे समाज को बेहतर दिशा प्रदान करना है,और अपनी दादी की दी हुई सीख का अनुसरण करते हुये सबका नाम रोशन करना है।
मौलिक/स्वरचित
आभा सिंह
लखनऊ उत्तर प्रदेश