सिसकियों में रात कटती
सिसकियों में रात कटती
आँख में आँसू पले हैं ।
सुबह होते ही बसेरा छोड़कर
फिर से चले हैं ।।
अब कहाँ आगे रुकेंगे रात
यह, अज्ञात है ।
बिना मंजिल के मुसाफिर की
यही तो बात है ।।
जो कठिन दुष्कर हमें हैं कार्य
इनको सब भले हैं ।
सुबह होते ही बसेरा छोड़कर
फिर से चले हैं ।।
सुन नहीं पाता है कोई आज
भी ,इनकी व्यथा को ।
हैं सभी मशगूल लेकर,अपनी
अपनी सुख कथा को ।।
इनके अरमानों के सूरज सांझ
से पहले ढले हैं ।
सुबह होते ही बसेरा छोड़कर
फिर से चले हैं ।।
चलते हैं बोझा लिए शिशु
पाँव नंगे पेट भूखे ।
अभावों की विकलता के ताप
से तन बदन सूखे ।।
सुलगती राहों में जिनके पाँव
के छाले जले हैं ।
सुबह होते ही बसेरा छोड़कर
फिर से चले हैं ।।
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