सिसकियाँ
सुनाई देती हैं मुझे सिसकियाँ
फिर से प्यार में आहत व चोट
खाई हुई उस खूबसूरत कलत्र की
जिसका पुनः विश्वास और आस्था
विस्वासघाती शस्त्र से तार तार हुई
चूर चूर हुए अरमान अनुराग के
थक हार कर सिसकती हुई
चक्षुनीर की सरिता सी बहाती
लूटी अस्मित आँचल में छुपाती
जो पुरुषत्व काम वासना की बलि चढी
खो दिया जिसने सम्पूर्ण आस्तित्व
चिन्ता है कैसे जिएगी वो
कैसे पाएगी खोया आत्मविश्वास
आगे बढने की नव राह चाह
कौन देगा प्रेम अनुराग
बन पाएगी किसी की प्रेमिला प्रेयसी
घर द्वार का हार श्रृंगार लक्ष्मी
पुरूष प्रधान समाज का अंग अंश
अन्य हेतु भविष्य प्रेरक प्रेरता
जो देगी औरों को आत्मविश्वास
आत्मशक्ति और स्वयं को आत्मशुद्धि
हो जाएगी आत्मग्लानि से स्वतंत्र
जिएगी निज का पाक साफ जीवन
सुखविंद्र सिंह मनसीरत