सिलाई की दुकान
खटपट-खटपट मशीन चला कर,
कपड़े सिलती है ऐसे,
देहरी का पर्दा फटा है घर का ,
न सिल सके वो बिन पैसों के जैसे ,
न है कोई सुई धागा न कैंची ,
दिन भर रहती कपड़ों की ढेरी में,
खुद पहने हुए हैं फटी पुरानी साड़ी,
गूथने में लगी रहती है,
काज बटन और मोती,
एक एक पैसे को जोड़ जोड़ कर,
घर चलाती है ऐसे,
रोटी कपड़ा और मकान के चक्कर में,
खोल ली सिलाई कि घर पर ही दुकान,
अब घर बैठे सिलती है कपड़े,
रखती है जीवन में स्वतंत्र विचार,
देख कला उसके काम के,
होते हैं सब हैरान ।
रचनाकार,
बुद्ध प्रकाश,
मौदहा हमीरपुर ।