सिलसिला
बंद दरवाज़ों के पीछे की सिसकियां कुछ सवाल छोड़ जातीं हैं,
मज़लूमों पर ज़ुल्म़तों की कुछ अनकही अनसुलझी दास्तां पेश कर जातीं है,
तवारीख़ के सियाह पन्नों पर कुछ अनमिटे हर्फ़ लिख जातीं हैं,
इन्सानियत पर हैवानियत के ज़ुल्मो
– दश्श़द्दुत की कहानी बयां कर जातीं हैं,
न जाने कब खत्म होगा ये सिलसिला,
कब तक शर्मसार होती रहेगी इंसानियत ,
कब मिलेगा ज़िदगानी को इज्ज़त से जीने का हक और इंसानियत को उसका वाजिब सिला।