सिया स्वयंवर
जनकपुरी में लगा था उत्सव, ज़ोर-शोर तैयारी थी
सिया को चुनना था उनका वर, कुंवरो की लगी क़तारी थी
सभा में बैठे राज कुंवर सब, जनकराज ने करा सम्भोदित
‘शिव धनु पे प्रत्यंचा चढ़ा दे, वही वर होगा मेरी सिया हित’
फिर आये सभी कुंवर आगे बढ़के, सबने अपना ज़ोर लगाया
थक के चूर हुए सब सभापति, पर दिव्य धनु कोई उठा न पाया
पूर्ण सभा फिर मौन हुई, जब शिव भक्त रावण बढ़के आया
पर अहंकार में चूर बहोत था, शिव धनु को वह उठा न पाया
जनकराज चिंता में सोचे, आखिर धनु को कौन उठाये
पूर्ण सभा ही हार चुकी थी, तभी रघुपति बढ़के आगे आये
रामचंद्र ने आगे बढ़के, पहले धनु को शीश नवाया
फिर उठा लिया उस दिव्य धनु को, उसपे प्रत्यंचा को चढ़ाया
ज्यों ही चढ़ी प्रत्यंचा धनु पे, एक ज़ोर का गर्जन आया
मर्यादा पुरुषोत्तम ने था, उस दिव्य धनु को तोड़ दिखाया
जनकराज ने आशीष दिया, सीता मन ही मन एहलाती थी
मनचाहा वर मिला था उनको, ख़ुशी से फूली नहीं समाती थी
रघुनन्दन की जयकार हुई, जनकसुता के हुए श्रीराम
स्वयंवर का हुआ समापन, रघुपति सीता हुए ‘सियाराम’