सियासत
सियासी दुकानें
सब ओर सज चुकी है,
कहीं बिक रही गरीबी
कहीं बेरोजगारी तो
कहीं शिक्षा
तबियत से बिक रही है।
कहीं पुरानी शिक्षा को
मैकाले की बता कर
खुद के कान्वेंट
खोले जा रहे
सरकारी स्कूलों में
अमूलचूल परिवर्तन
के दावे किए जा रहे।
अपने बच्चों को
सेंट जान्स में, और अवाम
को सरकारी स्कूलों
में दाखिले के
लिये प्रेरित किये जा रहे।
स्वास्थ्य हेतु बीमा की
सलाह दी जा रही
सरकारी अस्पताल में
भेड़ की तरह
मरीज देखे जा रहे
आउटसोर्सिंग के माध्यम से
अनस्किलडो को भर्ती
कर निरीह जनता की
चिकित्सा हो रही
बिना दवा के, पर
भरपूर दावे के साथ
सुपर व्यवस्था
अबाध चल रही
आयुष्मान के नाम पर
जनता प्राइवेट अस्पतालों
के ठगी व जालसाजी
का शिकार हो रही।
भ्रष्टाचार की हालत
आज भी यह है
कि जज के बगल में बैठा
पेशकार सामने ही पूरी
ईमानदारी से पैसा
लेकर अगली तारीख
मुकर्रर करता है
रजिस्ट्रार कार्यालय में
बैनामे का दो परसेंट
अतिरिक्त पूरी
ईमानदारी से लिया जाता है।
सरकारी दफ्तरों में
आज भी शाम की बंदरबांट
अनवरत जारी है
सुविधाशुल्क के अभाव में
पेंशनर बिना पेंशन लिये
स्वर्गवासी हो लेता है
मकान का नक्शा
पास कराते कराते एक
आम आदमी किराये
के मकान में चल देता है।
स्वस्थ विभाग एक ओर
मद्य निषेध का
होर्डिंग लगवाता है
जागरूकता फैलाता है
दूसरी ओर देशी विदेशी
शराबों के बिक्री का
लाइसेंस देता है।
कैसी यह व्यवस्था है
कैसी यह सोच है
राजनीति की टांग में
कैसी यह मोच है
जो राह अंधे को स्पष्ट
दीखता है
उसी राह में आँख वालों को
लगता खोंच है।
लेखपाल की नौकरी
एकदम शाही है
खतौनी के खेल में
वह एकदम माहिर है
उसके घर की शान
शौकत के आगे
जिलाधिकारी का आवास
पानी भरता है
ईमानदार परेशान व
बेईमान मचलता रहता है।
पिछले सत्तर वर्षों से
सत्तानिशों द्वारा
घोषणा पत्र अनवरत
जारी किये जा रहे
एक से एक चुनावी
वायदे किये जाते रहे
पर, निरापद जहाँ से
चले थे,वहीं पुनः
हम पहुँचते जा रहे।
आवाम के सामने
कोई विकल्प नहीं
कभी रावण को चुन रहे
कभी कंस को गुन रहे।
क्या कहें कितना लिखे
जनता कल भी बेचारी थी
निर्मेष आज भी है
संभवतः कल भी रहेगी
ये दुनिया सनातन तक
ऐसे ही चलेगी।
निर्मेष