फितरत सियासत की
रही फितरत बदलने की,भरी छल से सियासत है।
अदब से पेश आते हैं,कुशल कौशल नजाकत है।
अजब फितरत सियासत की, हमेशा खेल खेले है।
भरोसा क्या करें इन पर, झमेले ही झमेले हैं।
सितम की इंतहा कर दी,जहाँ इनकी हुकूमत है।
रही फितरत बदलने की,भरी छल से सियासत है।
नए किरदार आते हैं,मगर नाटक पुराना है।
करे वादे बदल जाये,नहीं इनका ठिकाना है।
मुखौटा ओढ़ कर बैठा,मगर दिखता शराफत है।
रही फितरत बदलने की,भरी छल से सियासत है।
भरे बाजार में सच की,दुकानों पर लगी चुप्पी।
तिजारत झूठ की मक्कारियों से है भरी कुप्पी।
दिमागी दबदबा हरदम,भरी दिल में हरारत है।
रही फितरत बदलने की,भरी छल से सियासत है।
सियासत दाँव चलती है,नहीं ये झूठ से डरते।
फरिश्तें जो उतर आये,यहाँ सच बोलते मरते।
कयामत से बहुत पहले,यहाँ आई कयामत है।
रही फितरत बदलने की,भरी छल से सियासत है।
कहानी राम शासन की, किताबों में पढ़ी महिमा।
जहाँ तप त्याग मर्यादा,अतुल आदर्श की गरिमा।
अमल में अब कहाँ ऐसी, सियासत की इबारत है।
रही फितरत बदलने की,भरी छल से सियासत है।
लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली