सिमट रही है धारणा हमारी!
बदल दो नाम उन सबके ,, है जिनसे तुम्हे परहेज,
पर है जो अपनी मातृत्व की परंपरा, उसे तो रख लो सहेज,
वसुधैव कुटुम्ब कम सूत्र वाक्य है अपना,
फिर क्यों भेद करते हैं, ये पराया, ये अपना,
ये आर्यावर्त है किसका, क्या वह आज भी चिन्हित हैं,
सब घुल मिल गए हैं, इस जहां में,
जो कभी आक्रातिंत भी रहे हैं ,
हूण मंगोल यूनानी, या रहे वै मुगल आक्रांता,
क्या आज है कहीं कोई उनका अता पता,
पर हम आज भी हैं कायम,बना कर सबको अपना,
यूं ही नही कह गये हैं,
यू नान- मिश्र- रोमां,मिट गये जहाँ से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी!
फिर क्यों सिमट रही है धारणा हमारी,
क्या एक ही धर्म कै उपासक,आपस में झगड़ते नहीं रहे हैं,
घर घर में सहिष्णुता घट रही है,
विद्वैश की प्रवृत्ति दिनों दिन बढ रही है,
भाई भाई तो बंट रहे हैं, मां बाप को भी बांटते हैं,
जो हो अपने अनुकूल, बस उसको छांटते हैं,
धर्म की कर रहे हैं पैरवी, गाएं सडक पर विचर रही हैं,
बैलों को छोड़ कर हम,टैक्टरों पर आ गये हैं,
जैविक ता कहाँ से आए,यूरिया का उपजा खा रहे हैं,
रहा नही थोड़ा सा भी सब्र हम पै,बात बात पर उबल पडतै हैं,
दिखावे का है भाई चारा,वर्ना हम हर बात पर तो चिढते हैं,
माहौल हो गया है असहिष्णु, अब हम यहाँ कहाँ सुरक्षित हैं,
है वक्त अब भी जो बचा हुआ , संभल जाएं इस मनोवृत्ति से,
नहीं तो न रह सके गी सुरक्षित, यह मानवता अब किसी से!!