ढोंगी बाबा
गर्मियों की छुट्टियां हो चुकी थीं। शायद इस वजह से ट्रेन में कुछ ज्यादा ही भीड़-भाड़ थी। स्लीपर क्लास की बोगियां भी जनरल से ज्यादा भरी थी। यानी ट्रेन में तिल रखने की भी जगह नहीं थी।
भीड़-भाड़ के बीच एक बाबा ए.सी. फर्स्ट क्लास में रास्ता घेरकर बैठे हुए थे। इससे रिजर्वेशन लेकर सफर करने वाले यात्रियों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। बाबाजी थे कि हटने का नाम ही नहीं ले रहे थे। ट्रेन कुछ दूरी चली थी कि टी.सी. वहां पहुंच गया। कुछ यात्रियों ने बाबा को हटाने का आग्रह किया। टीसी ने टिकट दिखाने को कहा, लेकिन बाबा जी माला जपने में मशगूल थे।
टिकट दिखाने का जब ज्यादा ही दबाव बना तो बाबाजी आग बबूला हो गए। “अभी भस्म कर दूंगा… ये ले टिकट, और ले टिकट, और कितने लेगा? और ले…” कहते हुए बाबा ने अपनी कई जेबों से दर्जनों टिकट निकाल फेंके। यह नज़ारा देखकर सभी हैरत में पड़ गए। टी.सी. पसीने से तरबतर, उसके तो हाथ-पैर ही कांपने लगे। अब टी.सी. तो क्या, शिकायत करने वाले यात्री भी बाबा के पैरों पर गिर पड़े।
ख़ैर, अब ट्रेन में अघोषित दरबार शुरू हो चुका था। साक्षात सिद्ध पुरुष मानते हुए सभी यात्रियों ने बाबा से क्षमा याचना की। बारी-बारी सभी यात्री समस्याओं का निदान कराने लगे, तो कोई भविष्य में आने वाली कठिनाइयों की काट करा रहा था। अब बाबा के पास चढ़ावा-दान के रूप में ढेरों रकम जमा हो चुकी थी, फेंकने के लिए खरीदे गए टिकटों से भी कई गुना ज़्यादा।
© अरशद रसूल