सिगरेट फूंक रही हूँ मैं
सिगरेट फूंक रही हूँ मैं
नए जीवन के प्रवेश द्वार पे
डर कर छुप कर खड़ी हूँ मैं…
अंदर कुछ लकड़ी सा है…
उसी को अबकी धूक रही हूँ मैं
आओ तपोगे क्या…?
तुमने भी अंदर अपने
सीलन पाल रखा है क्या …?
ढह जाओगे…
नमी अगर जड़ जमा लेगी
तुम्हें भी अंदर के सीलन को
मात देना हो गर…
तुम्हारे मन-मस्तिष्क की दीबार को
ढ़हने से बचाना हो गर… तो आओ
तापो आग और धुएं को…
…सिद्धार्थ