सिख जीने की
गुमसुम सी बैठा करती थी एक दादी,
गार्डन में एक बेंच पे, न जाने कहाँ देखती रहती थी…घंटो-घंटो तक…नजरें बिना हिलाए……
मैंने कभी नहीं देखी उनके चेहरे पर मुस्कान,
समझ गयी थी में की उनकी जिन्दगी नहीं आसान….
कई महीनों बाद एक दिन उन्हें मुस्कुराते देखा
खुशी कें आसुओं को आँखो से टपकाते देखा
आश्चर्य हुआ मुझे…मुझसे रहा नहीं गया… मैंने दादी से जाकर पुछा, आपने जो कुछ भी
खो दिया था, क्या आपको वापस मिल गया…
दादी मुस्कुराकर बोली, वो सामने पेड़ पर
चिडी़या दिख रही है, वो भी मेरी तरह अब अकेली हैं……
कुछ महींनो पहले उस चिडी़या ने कुछ बच्चों
को जन्म दिया,
उन्हें खिलाया-पिलाया, उड़ना सिखाया….
बच्चे जब बडे़ हुए, एकदिन घोसलें से उड़ गये,
बेचारी चिडी़या कई दिनों तक उनके लौटने की राह देखा करती थी,
गुमसुम डा़ली पे बैठा करती थी,
लेकीन आज वो चिडी़या चहक रही हैं,
खुशी से झुम रही है, क्यों की उसने खुद के
लिये जिना सिख लिया हैं,
अगर वो पंछी होकर ये समझ सकती हैं,
तो हम इंसान ही क्यों जानेवालों का शोक
मनातें बैठते हैं….
आज से मैं भी खुद के लिये जिऊँगी,
बचिकुची जिन्दगी मुस्कुराते हुए बिताऊँगी….
खुशी से घर जाती दादी को, में बस देखती
रह गयी……
उनकी ये खुशी हमेशा बरकरार रहें,
इस बात की दुहाई देती रही……..