सिंहपर्णी का फूल
मेरे प्रेम का गुलाब
तुमने नोंचकर फेंक दिया
और अपनी रेशमी जुल्फ़ों में
गूँथ लिया
सिंहपर्णी का पीला फूल!
गुलाब नोंचने से पहले जरा
उसकी रंगत को गौर से देखा तो होता
एकदम सुर्ख लाल, जिन्हें रंगा था मैंने
अपने टपकते हुए दिल के खून से!
इसमें तुम्हारा दोष नहीं
दोष तो उत्पन्न हुई प्रीत की आकाँक्षाओं का है
ये मासूम अबोध निर्मल दुधमुँही सी
प्रेम की आकाँक्षाएं
जो आकाश सी ऊँचाई लिए
मोहब्बत की ख़ुशबू से तरबतर
भीगी उड़ती रहती हैं
इश्क़ की फिज़ाओं में
और उड़ते–उड़ते कुछ समय बाद
समावेषित होकर विलीन हो जाती हैं
वातावरण में मौजूद अन्य गंधों के साथ!
धड़ाम होती आकाँक्षाएं
प्रेम की छटपटाहट में तड़पकर
इंतज़ार करती हैं कि
कब बंजर धरती इन्हें
अवशोषित कर ले!
ठीक उसी तरह
जैसे ऊँचे पेड़ों पर बने
पंक्षियों के घोंसलों में से कोई अंडा
नीचे गिरकर फूट जाता है!
मुझे तुम्हारी फ़िक्र है
कि क्या ये
बाहर से मासूमियत का पीलापन लिए
अंदर से धूर्त कपट चालाकी और छल से भरा
घमंडी अभिमानी
सिंहपर्णी का पीला फूल
भाग्य की कैंची से बच पाएगा!
या फिर एक दिन
ये भी बिखर जाएगा
पथरीली धरती पर
उस पाशविक प्रेमी की तरह
जो अपनी प्रेमिकाओं का
सबकुछ लूटकर
उन्हें अपने तपते धोखों के
अंगारों में जलता छोड़
एक दिन भूमिगत हो जाता है!
तब तुम्हारी हालत होगी
उस संकीर्ण लोकतांत्रिक रानी की तरह
जो लालच के पराधीनता में बँधकर
खुद को स्वतंत्रता का आभाष देती है!
और बहती चली जाती है
विचारों में असमानता लिए हुए भी
समानता के दिखावे से लबालब भरी हुई
किसी लोभ की दलदली नदी के समान!
इसलिए मुझे तुम्हारी चिंता
हमेशा लगी रहती है
कि क्या ये
मृषा–प्रहर की मिथ्याओं से भरा
सिंहपर्णी का पीला फूल
तुम्हारी चलती साँसों की साधों में
हल्दी का रंग बिखेर पाएगा!
या फिर कुछ समय बाद
अपने बातिल सपनों के
रंगीन अंगारों में जलाकर
तुम्हें बना देगा
बुझी हुई निष्प्राण सी
ठंडी राख…..!
–कुंवर सर्वेंद्र विक्रम सिंह
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