सिंदूर: एक रक्षक
सिंदूर: एक रक्षक
// दिनेश एल० “जैहिंद”
कवि – एकनिष्ठता का द्योतक सिंदूर
पतिव्रता का पोषक सिंदूर ।
सिंदूर रचता सकल परिवार
स्त्री–लाज का रक्षक सिंदूर ।।
सुहागन – है नहीं उधार का सिंदूर
है नहीं चुटकी भर सिंदूर ।
ये मेरे जीवन की ज्योति
है मेरा सम्मान ये सिंदूर ।।
अभागन – हूँ मैं इस जीवन से मजबूर
थक – हारकर चकनाचूर ।
किन पापों की सजा है मेरी
क्यूँ मैं हूँ इस सिंदूर से दूर ।।
कवि – कर लिये सारे सिंगार
सिंदूर बिन सब बेकार ।
सिंदूर कोई चीज नहीं
है नारी – जीवनोद्धार ।।
सुहागन – भ्रमित नारी भूल रही क्यों
कौन–सा सुख कहाँ ढूँढ रही यों ।
ऐसा सुख नहीं कहीं धरा पर
घुला सुख सुहागन होने में ज्यों ।।
अभागन – मेरा जीवन अभिशाप बना
सबकी नजरों में पाप बना ।
मैं अभागन जीवन अभागा
बिन सिंदूर अब संताप बना ।।
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दिनेश एल० “जैहिंद”
09. 09. 2017