‘साहित्य’
‘साहित्य’
वर्णों के पुष्प अंकुरित हो उठते,
ले भावों का भार बोझिल हो झुकते।
कलम दौड़ती स्याही संग हिल-मिल,
तब रूप नए साहित्य के खिलते।
कवि कल्पित मन गोते लगाता,
उठ उठ गिर गिर शब्द फिसलते।
पन्ने अलट-पलट करते हैं नृतन
आँखों से ही इससे हैं लोग मिलते।
भिन्न भाव-पुष्प होते यहाँ विकसित,
लोग पढ़-गुनकर उनसे हैं मिलते।
साहित्य की सीढ़ी बड़ी ही ऊँची,
कर लाख प्रयत्न इस पर हैं चढ़ते।
सर्व हित की बात बसी है इसमें,
इसलिए इसे साहित्य हैं कहते।