साहित्यिक आयोजन में श्रोता (हास्य व्यंग्य)
साहित्यिक आयोजन में श्रोता (हास्य व्यंग्य)
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एक साहित्यिक कार्यक्रम में हम श्रोता के रूप में जाकर फंस गए। दरअसल पहली गलती तो यह हुई कि हम समय से पहुंचे। कार्यक्रम में जिस समय बुलाया गया, हम 5 मिनट पहले घर से चले और जब समारोह स्थल पर पहुंचे तो देखा कोई नहीं था। हमें शंका हुई कि जरूर हमने समय याद रखने में कोई गलती कर ली है। टेलीफोन मिलाया आयोजक से पूछा भाई साहब समारोह स्थल का मुख्य दरवाजा बंद है, कोई आसपास नजर भी नहीं आ रहा । क्या सचमुच निमंत्रण पत्र में वही दिन, वही तारीख और वही समय है जो इस समय चल रहा है । वह बोले भाई साहब आप जल्दी आ गए। यानी कुल मिलाकर समय से पहुंचने पर भी गलती हमारी ।आयोजक बोले आप जाइए मत। मैं 2 मिनट में पहुंच रहा हूं। आयोजक जिम्मेदार आदमी थे। ठीक 2 मिनट में हाजिर हो गए। दरवाजा खोला कुर्सी की धूल झाड़ी और हमें प्रथम पंक्ति पर बिठाने का प्रयास किया । मैं आता हूं-कहकर फिर आयोजक चले गए ।आधे घंटे तक समारोह स्थल पर सन्नाटा छाया रहा हमारी स्थिति थी जैसे हम चौकीदारी करने के लिए बिठा दिए गए हों अथवा आने वालों के स्वागत की जिम्मेदारी का सारा भार हमारे ही कंधों पर हो। 1 घंटे बाद आयोजक आए। उनके साथ साथ कुछ श्रोता भी पधारने लगे ।हम सबसे पुराने श्रोता थे। 1 घंटे से बैठे थे , उकता गए ।
उसके बाद कार्यक्रम में मंच पर बहुत से सम्मानित व्यक्ति बैठे ।उनका फिर से सम्मान होना था क्योंकि अगर सम्मान दो-तीन महीने पुराना हो जाए तो फिर सम्मानित व्यक्तियों को ऐसा लगता है कि वे अब सम्मानित नहीं रहे । इसलिए पांच-छह साहित्यिक संस्थाएं आपस में गठबंधन बना कर एक दूसरे का सम्मान करती रहती हैं ।हर तीसरे महीने आपस में परस्पर आदान-प्रदान के आधार पर सब लोग सम्मान का नवीनीकरण कराते रहते हैं ।आधे घंटे फूल माला सम्मान प्रशंसा साधुवाद धन्यवाद मुख पर मुस्कान आदि चलता रहा। अब समस्या यह थी कि 9 लोग मंच पर थे और श्रोता 8 थे। हमारी समझ में यह नहीं आ रहा था कि 8 श्रोताओं के लिए 9 वक्ता क्यों है ।लेकिन गलती हमारी थी वास्तव में 9 मंच पर और 8 श्रोताओं की कुर्सी पर कुल मिलाकर 17 वक्ता थे ।हम अकेले थे जो श्रोता थे ।बाकी सब को कुछ ना कुछ बोलना था। लिहाजा सबने जब नंबर आया तो बोलना शुरू किया और हम जब थक गए, तब हमने सोचा कि हम चलें, यह तो चलता रहेगा। सब लोग बोलते रहेंगे ।जब हम चलने को हुए तो फिर चार वक्ता जो हमारे आस-पड़ोस के रह गए थे, बोले भाई साहब कहां चल दिए ? हमें भी सुन कर जाइए । मरता क्या न करता, हम फंस चुके थे । और यह भी अच्छा नहीं लग रहा था कि कार्यक्रम का इकलौता श्रोता अपने प्रिय वक्ताओं को अधर में छोड़कर चला जाए ।लिहाजा हमें रुकना पड़ा और एक-एक करके हमने उन चारों वक्ताओं को भी सुना। अन्त में श्रोता के रूप में हम अकेले बचे थे ।हमने कहा अब हम जाएं? आयोजक बोले भाई साहब अभी धन्यवाद और होगा जिसमें श्रोताओं का आभार प्रकट किया जाएगा ।मैंने कहा “श्रोताओं का आभार” शब्द सही नहीं आया आप “श्रोता का आभार” प्रकट कर दीजिए लेकिन जो करना है दो -तीन मिनट में कर दीजिए क्योंकि आप का एकमात्र श्रोता अब बेहोश होने वाला है ।
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लेखक: रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश// मोबाइल 99 97 61 5451