*साहसी विहग*
विहग वन में जलता रहा, विद्वेष के अंगार पर ।
पर पथ निज उन्नत किया ,श्रमभेरी का श्रंगार कर।।
विहान वेला के आगमन पर,त्यागता था नित नीड अपना।
पता न होता तनिक भी ,पूर्ण होने का व्यग्र सपना।
वन शीत वायु अंधड़ा सी ,वहती थी झकझोरती सी।।
शीत करती अखण्ड सा तन,चलती थी कुछ चोरती सी।
करके आँख मिचोनियां सी, भागती थी दुत्कार कर ।।
विहग वन में———————————————-।१।
आभा रहित मुख पर लसित,होती थी अफ्यूनिम लालिमा ।
छिप ना सकी थी बैरियों की,ह्रदय कलुष चिर कालिमा।
निषंग जो एक लक्ष्य था,हंसके सश्रम साकार किया।
भू डोलते विद्वेष को औ, निर्ममता का संहार किया ।।
बोध था क़ि लक्ष्य पायेगा?,विहग भँवर को पार कर ।।
विहग वन ————————————————-।२।
मिटा न सका कोई भला ,भाग्य में जो लिखा उसके ।
चाहत ने प्रतिक्षण हँसा ,विद्वेसियों के पंख खिसके।
विजय आ लगी स्वतः गले, मोतियों के माल सी वो।
हरी सी ,और नील सी वह,थी और कुछ लाल सी वो।
रात दिन खोजता क्षुदा साधन,रजकण में स्वर्णकण जानकर ।।
विहग वन में जलता रहा , विद्वेष के अंगार पर —।३।