सावन
याद आया
जब चली वासंती हवा,
बगियन से झूमकर।
भँवरों की टोली चली,
फूलों की सुगंध पर।
कोयलिया कूक-कूक,
डोले है आम्रतरु पर।
मोरवृन्द नृत्य करें,
बरसे सावन झूमकर।
नदियाँ बहें गाती हुई,
लहरें सुनाती तान हैं।
ज़िन्दगी रूमानियत का
जब बांह थामने लगे।
तेरी आंखों की चमक,
बिजली सी कौंध गई।
तेरी मोहक मुस्कान,
लहरों में खेलने लगीं।
तेरी यादें दिखने लगीं,
पुरवाई पवन संग में।
जब-जब छायी घटा,
आकाश के सीने पर।
तब तब ये मन विह्वल,
ढ़ूँढ़ता रहा जाने कहाँ।
हर शाख के पत्तों पर,
तेरा अक्स उभर आया।
कोयल की मृदु बोली में,
तेरी आवाज़ गूँजती रही,
लहरें सुनाती रहीं बातें।
जब-जब छायी घटा ये,
सावन की मतवाली-सी।
तो मुझको तेरा चेहरा,
याद आया,याद आया।
डॉ सरला सिंह ‘स्निग्धा’
दिल्ली