सार छंद – –
नीहार सजित पल्लव पल्लव,झरे तुषार अनूठा
दिखता अलसाया सा विहान लागे दिनकर रूठा
शाख-शाख तुहिनों के मौक्तिक,दिप दिप दमक रहे हैं
कंपन से थर्राते पंछी,इत उत भटक रहे हैं।
सर्दी अपने चरम रूप पर,धूप बहुत है भाती।
ऋतु है बढ़िया खानपान की, क्षुधा उभर है जाती।।
लघु हैं दिवस दीर्घ विभावरी,दुबको लिए रज़ाई।
भोर कुहासा हमें डराता,राह न सूझे भाई।।
झुलस रहे हैं पल्लव पल्लव,बरसे
रही है अगन,
भिनसारे ही आग उगलती रवि रश्मि बांटें तपन।
विटप शाख हुई पात विहीन,प्राणी जल को तरसे,
छाया हीन विहग हैं व्याकुल,किस विधि मनवा सरसे।
गर्मी अपने चरम रूप पर,धूप अधिक रुलाती।
ऋतु संतुलित खानपान की,क्षुधा ज्यों मर है जाती।।
दीर्घ हैं दिवस लघु विभावरी,न चाहो चादर रज़ाई।
तपती लू है हमें डराती,राह न सूझे भाई।।
रंजना माथुर
अजमेर राजस्थान
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
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