सार्थक महोत्सव
मैं अपनी कहानी की शुरुआत मेरे अपने मोहल्ले के दो भाइयों से करता हूँ । वे दोनों आसपास के मोहल्ले में लोगों को मदद करके , उससे जो भी पारितोषिक मिल जाती थी , जिससे कुछ जमा रुपये से दोनों इसी वर्ष के आगामी विजयादशमी मेले में कई सारे गुब्बारे , खिलौने आदि खरीद सकें । खास बात यह थी कि वह दोनों अत्यन्त ही गरीब थे । हालात ऐसी थी कि यदि एक दिन का भी रोटी खाने को मिल जाती थी तो वह भगवन् को कृतज्ञ – कृतज्ञ कहते थे ।
दिन बीतते गए……..।
दुर्गा पूजा का भी महोत्सव आ ही गया । आज कलश स्थापन के बाद प्रथम शैलपुत्री देवी की पूजा थी और उसके पास लगभग ₹ ३०० जमा भी हो गए थे । उसी रुपए से वह दोनों फूल – पत्ती , अगरबत्ती और कुछ प्रसाद खरीद कर खुशी – खुशी मन्दिर में प्रवेश कर माँ की प्रतिमा का पुष्पांजलि और उनकी पूजा कर दोनों उछलते – कूदते अपने विद्यालय पहुँच गए ।
विद्यालय में प्रार्थना सभा के बाद आज शिक्षक महोदय वर्ग में विभिन्न उत्सवों के बारे में व्याख्या कर रहे थे । कभी राष्ट्रोत्सव तो कभी धर्मोत्सव के हरेक जीवन के पहलूओं की ओर संकेत कर विभिन्न उत्सवों का महत्व बताते हुए , बता रहे थे कि किस तरह हर उत्सव मानव जीवन को समृद्धि सूचक के रूप में सृजनात्मक विकास , नकारात्मक से सकारात्मक विचार की ओर पहल और जीवन के विकारों को दूर करते हुए नई हौंसलों के ऊर्जा का संचरण से मानव के मन मस्तिष्क की तन्मयता से नई वसन्त की ओर और अधिक ऊर्जा प्रदान करते हैं और इसके साथ – साथ प्रकृतोत्सव का भी स्वागत लोग प्रतीक्षारत भरी उमंग से करते हैं । चाहे परीक्षोत्सव हो या जीवनोत्सव आदि – आदि की शिक्षा का पाठ पढ़ा रहे थे । यह सब ज्ञान दोनों भाइयों के अन्दर से नई हौंसलों और उमंगों के साथ खंगाल दिया और वे दोनों भाई खुशी – खुशी घर को लौट गए ।
दिन बीतने के साथ – साथ विजयादशमी का पावन अवसर भी आ ही गया । प्रतीक्षा की घड़ी भी नजदीक आ गई और वो दोनों नए – नए कपड़े पहनकर मेला घूमने निकल गए , लेकिन हुआ इसके कुछ विपरीत उस दोनों को मेला के भीड़ , दुकानें और लोगों की चहल – पहल आदि नहीं भा रही थी । फिर कुछ देर बाद मेला भी उसे घूँटन – सी महसूस होने लगी । दुर्गा देवी की प्रतिमा का दर्शन कर दोनों निराश होकर घर लौट ही रहे थे कि रास्ते में एक उसके ही उम्र के बच्चे के शरीर पर लिबास भी फटी – सी थी । अपनी हालात को भूलकर वह सोचने लगा कि जमा रुपैया तो खर्च नहीं कर पाया तो क्यों न इस बच्चे को एक नई शर्ट दुकान से खरीद के दे दूँ , जिससे शिक्षक का दिया हुआ ज्ञान भी सार्थक हो जाएगा और हम लोगों का मन भी सन्तुष्ट हो जाएगी । दोनों भाई उस बच्चे को एक सुन्दर – सी शर्ट खरीद के दे दी और बच्चे शर्ट को पाकर फूले नहीं समा रहे थे और उस दोनों को दिल से धन्यवाद कहा और तीनों आपस में गले मिलकर अपने घर की ओर प्रस्थान कर गए ।
अन्त में दोनों भाइयों ने कहा आज विजयादशमी का महोत्सव भी सार्थक हो गया ।
धन्यवाद
✍ ✍ ✍ वरुण सिंह गौतम