सारवती छंद “विरह वेदना”
वो मनभावन प्रीत लगा।
छोड़ चला मन भाव जगा।।
आवन की सजना धुन में।
धीर रखी अबलौं मन में।।
खावन दौड़त रात महा।
आग जले नहिं जाय सहा।।
पावन सावन बीत रहा।
अंतस हे सखि जाय दहा।।
मोर चकोर मचावत है।
शोर अकारण खावत है।।
बाग-छटा नहिं भावत है।
जी अब और जलावत है।।
ये बरखा भड़कावत है।
जो विरहाग्नि बढ़ावत है।।
गीत नहीं मन गावत है।
सावन भी न सुहावत है।।
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लक्षण छंद:-
“भाभभगा” जब वर्ण सजे।
‘सारवती’ तब छंद लजे।।
“भाभभगा” = भगण भगण भगण + गुरु
211 211 211 2,
चार चरण, दो-दो चरण समतुकांत
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बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया