सारंग-कुंडलियाँ की समीक्षा
समीक्ष्य कृति -सारंग कुंडलियाँ
कवि- प्रदीप सारंग
प्रकाशक- अवध भारती प्रकाशन,बाराबंकी ,उ प्र
प्रथम संस्करण -2022 ( पेपरबैक)
सारंग – कुंडलियाँ: ‘क्षेत्रीय बोली में राष्ट्रीयता का उद्घोष’
अवधी भाषा के सुप्रतिष्ठित साहित्यकार आदरणीय डाॅ रामबहादुर मिश्र जी से टेलीफोन पर कुंडलिया छंद पर वार्ता के क्रम में ज्ञात हुआ कि अवधी भाषा में एक कुंडलिया संग्रह प्रकाशित हुआ है। मेरी भी इच्छा हुई कि मैं भी उस कृति को पढ़ूँ, कारण बहुत स्पष्ट है कि एक तो मैं कुंडलिया छंद के लेखन से जुड़ा हुआ हूँ, दूसरे मेरी मातृभाषा भी अवधी है। मैंने आदरणीय डाॅ मिश्र जी से अनुरोध किया कि क्या किसी तरह वह कुंडलिया कृति मुझे उपलब्ध हो सकती है? उन्होंने मुझे आश्वस्त करते हुए कहा कि बिल्कुल और आपने आदरणीय प्रदीप सारंग जी को फोन किया तथा मेरा पता उन्हें देकर पुस्तक भेजने के लिए कहा। आदरणीय प्रदीप सारंग जी ने अपनी कृति डाक द्वारा प्रेषित की। एतदर्थ आदरणीय डाॅ रामबहादुर मिश्र और कृतिकार आदरणीय प्रदीप सारंग जी का कोटिशः आभार।
सारंग कुंडलियाँ की भूमिका लिखी है डाॅ संतलाल जी ने जो कि भाषा सलाहकार हैं। उनका स्पष्ट मत है कि प्रदीप सारंग जी की कुंडलियाँ आनुभूतिक यथार्थ का प्रतिदर्श हैं। और वे लिखते हैं कि कविता वही सार्थक है जो समसामयिक संदर्भों से जुड़कर समाज का मार्गदर्शन कर सके। कृति के दूसरे भूमिकाकार हैं आदरणीय डाॅ विनय दास जी , आपने ‘छंद पारंपरिक और बोध आधुनिक’ शीर्षक के साथ कृति की विशेषताओं को रेखांकित किया है। इतना ही नहीं इस कृति के संबंध में आदरणीय डाॅ रामबहादुर मिश्र और मूसा खान ‘अशांत’ बाराबंकवी जी के अभिमत भी हैं। यह सब तो खड़ी बोली हिंदी में है लेकिन कुंडलियाकार प्रदीप सारंग जी ने ‘अपनी बात’ के लेखन के लिए ‘आपनि बात’ शीर्षक देते हुए अपनी मातृभाषा अवधी को माध्यम बनाया है तथा इसे समर्पित किया है स्मतिशेष अपनी माता जी को।
अवधी भाषा में लिखी इस कृति में अनेकानेक विषयों पर रचित 151 कुंडलिया छंद हैं। क्षेत्रीय भाषा में सृजित इस कृति के छंदों से गुजरते हुए पाठक को न केवल उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र के गँवई जीवन के दर्शन होते हैं वरन पाठक के सामने राष्ट्रीय समस्याएँ भी मुँह बाये खड़ी दिखाई देती हैं। अतः ‘कवि की अभिव्यक्ति की भाषा कोई भी हो यदि उसके विचारों का कैनवस विशद होता है तो वह बड़ी आसानी से न केवल अपने आस-पास को अपितु राष्ट्रीयता और वैश्विकता को भी अपनी रचना का विषय बना लेता है।’ कृति के आरंभिक दो छंदों में सारंग जी अपने माता-पिता का पुण्य स्मरण करते हैं तथा तीसरे छंद में अपने गुरुवर के प्रति श्रद्धानत दिखाई दे रहे हैं। कुंडलिया छंद के प्रति अनुराग एवं प्रणयन की प्रेरणा आपने कविवर गिरिधर से प्राप्त की है अतः सारंग जी उन्हें ही अपना कुंडलिया छंद का गुरु मानते हुए लिखते हैं –
वन्दन माँ का करित है, गुरु चरनन मा शीश।
संरक्षक गन साथ मिलि, देहु हमें आशीष ।।
देहु हमें आशीष, हार कै मिलै न हाला ।।
पाप कर्म हों दूरि, हृदय मा बढ़े उजाला ।।
कह सारंग कविराय, रचै का कविता चन्दन।
गिरिधर गुरू बनाय, करित श्रद्धानत वन्दन ।।( छंद-3)
अपने आस-पास के समाज को सारंग जी ने बहुत ही बारीकी से देखा और समझा है। आज की युवा पीढी कौन सी पढ़ाई पढ़ती है, कि उसके पास डिग्रियाँ तो हैं लेकिन ज्ञान नहीं विशेषकर अपनी भाषा हिंदी के प्रति अज्ञानता का आलम यह है कि अच्छे-अच्छे डिग्रीधारी युवाओं से यदि कुछ हिंदी भाषा में लिखने के लिए कहा जाए तो दो पेज भी वे नहीं लिख पाते। यह दोष केवल आज की युवा पीढी का ही नहीं है इसके लिए हमारी शिक्षा प्रणाली और माता-पिता भी बराबर के दोषी हैं। जीवन में आगे बढ़ने के लिए अन्य विषयों के ज्ञान के साथ अपनी भाषा पर मजबूत पकड़ बहुत जरूरी है। लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों में पढ़ाकर अंग्रेज बनाना चाहते हैं। कवि सारंग जी की यह व्यंग्यपूर्ण कुंडलिया समाज को आइना दिखाती है।
बीए एम्मे पास हैं, लिखि न सकें दुइ पेज।
हिन्दी उइ जनतै नहीं, बोलें जस अंग्रेज ।।
बोलें जस अंग्रेज, आचरन वइस दिखावें।
बनि ज्ञानी दिनिरात, सदा तरकीब सिखावें ।।
कह सारंग कविराय, बनें कस पीए सीए।
पढ़िन नहीं बस पास, किहिन हैं एम्मे बीए।। (छंद- 27)
जीवन में पेड़- पौधे कितने उपयोगी हैं ,उनसे हमें क्या-क्या लाभ होते हैं? यह जानते तो सभी हैं किंतु स्वार्थवश इंसान पेड़-पौधों और जंगलों को नुकसान पहुँचाने से बाज नहीं आता। बढ़ता हुआ प्रदूषण आज हमारे लिए सबसे बड़ी चिंता है। जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक स्तर पर बड़ी-बड़ी बैठकें होती हैं परंतु परिणाम सदैव शून्य ही रहता है। यदि हम विकास की अंधी दौड़ में न शामिल होकर प्रकृति संरक्षण के लिए आवश्यक कदम उठाएँ तो बहुत हद तक समस्या का समाधान कर सकते हैं। प्रदीप सारंग जी ने पेड़-पौधों लाभ गिनाते हुए अपने छंद में लिखा है-
बरगद-पीपर नीम से, हवा साफ होइ जाय।
चिरई सब भोजन करें, झोंझौ लियें बनाय ।।
झोझौं लियें बनाय, सुखद संगीत सुनावें ।
मेहरी बरगद पूजि, पतिन कै उमरि बढ़ावें ।।
कह सारंग कविराय, हुवै मन सबका गदगद ।
दुपहरिया मा छाँव, मिलै जौ पीपर-बरगद ।। (छंद 123)
एक समय था जब गाँव-देहात में लोग भरपूर मात्रा में मोटे अनाज का प्रयोग अपने दैनिक भोजन में किया करते थे। परंतु बढ़ती आबादी का पेट भरना देश के लिए एक समस्या बनने लगा। परिणामस्वरूप हरित क्रांति के द्वारा देश में अनाज का उत्पादन बढ़ाने पर बल दिया गया। फलतः अनाज का उत्पादन बढ़ा और विदेशों से अनाज ,विशेषतः गेहूँ के आयात पर विराम लगा। फिर धीरे-धीरे समय बदला और मोटे अनाजों का उत्पादन कम होने लगा। आज हमारी सरकार जिस ‘मिलेट’ की बात करती है वह कभी हमारे भोजन का अभिन्न अंग हुआ करते थे। ज्वार,बाजरा, रागी, जौ, सावां, कोदों आदि अनाज लुप्तप्राय हो गए। ये मोटे अनाज हमारे लिए कितने लाभदायक हैं, सारंग जी का एक कुंडलिया छंद द्रष्टव्य है-
रोटी बेझरौटी मिलै, अउर करेला साग।
माखन चुपरा हुवै तर, समझौ खुलिगे भाग।
समझौ खुलिगे भाग, करेला भरुआ होवै।
जौन सतनजा खाय, मस्त सुखनिंदिया सोवै ।।
कह सारँग कविराय, गजब हथपोइया मोटी।
साँचु वहै बड़भाग, खाय बेझरौटी रोटी।। ( छंद-87)
आज किसान के सम्मुख अनेक समस्याएँ मुँह बाये खड़ी रहती हैं, किसानी घाटे का सौदा हो गया है। कई बार तो किसान फसल उगाने के लिए जो लागत लगाता है वह तक वसूल नहीं हो पाती। नाना प्रकार के कष्ट सहकर, जाड़ा, गर्मी, बरसात हर मौसम का सामना कर किसान न केवल अपना पेट भरता है वरन शहरों में रहने वाले लोगों का भी पेट पालता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि खेती-बाड़ी के काम में लगे लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए सार्थक और ठोस कदम उठाए जाएँ। अतिवृष्टि और अनावृष्टि के साथ-साथ आज का किसान छुट्टा घूम रहे जानवरों से बहुत परेशान है। इन जानवरों से अपनी फ़सल की रक्षा करना एक बहुत बड़ी चुनौती है। वह दिन भर खेत में काम करता है और रात में छुट्टा घूम रहे जानवरों से अपनी फ़सल बचाता है।
छुट्टा घूमैं जानवर, चरैं ख्यात दिन राति।
खुदै जानवर जस बनी, ई मनइन कै जाति।।
ई मनइन कै जाति, लट्ट नै दूरि भगावैं।
लागै जब-तक गाय, दूध औ मक्खन खावैं ।।
कह सारंग कविराय, फायदा दिखै न फुट्टा।
बेबस होइकै छोड़ि, दियैं साँढ़न का छुट्टा ।। ( छंद -95)
बढ़ता जल संकट मानव-जाति के अस्तित्व पर एक प्रश्नचिह्न है। केवल वर्तमान ही नहीं भावी पीढ़ियाँ इस धरती पर किस प्रकार गुज़र-बसर करेंगी इसके लिए आज ही सोचने और क़दम उठाने की आवश्यकता है। जल मात्र मानव जाति के लिए ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों के लिए भी आवश्यक है। सारंग जी इस तथ्य से बहुत अच्छी तरह परिचित हैं।
पानी बिन कुछ बची ना, जीवन जंगल खेत।
जल संकट समने खड़ा, अब ना रहौ अचेत ।।
अब ना रहौ अचेत, करौ पानी कम खर्चा ।।
घर-घर का संदेश, करौ जल-संचय चर्चा।
कह सारंग कविराय, सबै छोड़ौ मनमानी।
मिलि के करौ उपाय, बचाऊ बरिखा-पानी ।। ( छंद- 120)
साफ-सफाई जीवन के लिए बहुत जरूरी है। कहा भी जाता है कि जहाँ स्वच्छता होती है, उस जगह पर ईश्वर का वास होता है। महात्मा गांधी ने भी देशवासियों को स्वच्छता के महत्व को समझाने का प्रयास किया था। वर्तमान समय में हमारे देश में स्वच्छता अभियान बहुत जोर-शोर से चल रहा है। इसका मुख्य उद्देश्य गंदगी से होने वाली बीमारियों से देश को बचाना है। सारंग जी ने भी अपनी कुंडलिया के माध्यम से समाज को स्वच्छता के प्रति जागरूक करते हुए लिखा है-
नाली नाला साफ तौ, सब कचरा बहि जाय।
जल भराव भी न हुवै, रहै स्वच्छता भाय।।
रहै स्वच्छता भाय, देखि जनमन खुश होवै।
घर होवे या गाँव, नहीं सुंदर छवि खोवै।।
कह सारंग कविराय,गंदगी खुद ही गाली।
राखै यहिका दूरि, एकु ठौ नाला नाली।। ( छंद-142)
इन छंदों के माध्यम से न केवल वर्तमान समाज की समस्याओं का पता चलता है वरन कवि के आधुनिक युगबोध का भी परिचय प्राप्त होता है। यदि कवि अपने युगबोध से कट जाता है तो वह कवि कहलाने का अधिकारी नहीं होता। प्रदीप सारंग ने वर्तमान समय की लगभग सभी समस्याओं को कविता का वर्ण्य-विषय बनाया है। दैनिक जीवन में स्वास्थ्य के लिए उपयोगी नुस्खे जो लोग दादी-नानी से सुना करते थे, को सारंग जी ने उन्हें अपने कुंडलिया छंदों में स्थान दिया है।
कवि ने समसामयिक मुद्दों के साथ-साथ शाश्वत जीवन-मूल्यों से संबंधित छंद भी सृजित किए हैं जो न केवल लोगों का मार्गदर्शन करते हैं अपितु भारतीय सभ्यता और संस्कृति से भी परिचित कराने में सक्षम हैं। व्यक्ति के जीवन में सूरत की अपेक्षा सीरत अधिक महत्वपूर्ण होती है। सबको यह बात अच्छी तरह पता है फिर लोग सूरत को ही चमकाने में लगे रहते हैं।
सूरत चाहे हुवै जस, सीरत सुन्दर होय।
हुवै बड़ाई चरित कै, यहु जानत सब कोय ।।
यहु जानत सब कोय, ज्ञान से चरित बड़ा है।
चढ़ा शिखर पर वहै, चरित पे अडिग अड़ा है।।
कह सारंग कविराय, सुनौ बड़-ज्ञान की मूरत।
चरितवान बड़भाग, नहीं चेहरा खुबसूरत ।। ( छंद -39)
अवधी भाषा में रचित इस कृति की कुंडलियाँ अत्यंत भावपूर्ण और संदेशप्रद होने के अतिरिक्त जागरूक करने में भी सक्षम हैं।आपने कोविड, शराब सेवन से हानियाँ, मतदान, मतदान में नोटा का उपयोग, आधुनिक तकनीक के लाभ-हानि, खादी की महत्ता, योग और कसरत , मेलों की उपयोगिता आदि अनेक विषय कुंडलिया छंद के अंतर्गत लिए हैं। कवि ने अपनी बात को प्रभावपूर्ण बनाने एवं सटीकता से भावों को पाठकों तक संप्रेषित करने के लिए भाषा के दुराग्रह को त्यागकर यथावश्यक शब्दावली का प्रयोग किया है। कवि ने अंग्रेजी के मोबाइल, टाॅनिक, टेक्निक, फेसबुक फ्रेंड, बोरिंग, एंटीबायोटिक आदि और अरबी-फ़ारसी के- सूरत, सीरत, कुदरत, खातिर, एहसास आदि आमजीवन में प्रचलित शब्दों के साथ-साथ तत्सम- आस्तिक, दुर्गति, त्रिदेव, मेघ, प्रदूषण ,याचना आदि शब्दावली का भी प्रयोग किया है। ‘सारंग कुंडलिया’ के छंद सामाजिक सरोकार एवं युगबोध से युक्त होने के साथ ही जीवन मूल्यों से युक्त होने के कारण सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। इस पठनीय एवं संग्रहणीय महत्वपूर्ण कृति के प्रणयन के लिए प्रदीप सारंग जी को अशेष शुभकामनाएँ। आशा है आप ऐसे ही अपनी कृतियों के माध्यम से साहित्य जगत को समृद्ध करते रहेंगे।
समीक्षक,
डाॅ बिपिन पाण्डेय