*साम वेदना*
डॉ अरुण कुमार शास्त्री एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
* साम वेदना *
दर्द छुपा जिन आँखों में
उन आँखों की बरसात लिखुँ
या फिर लूट रहे मानव
बन दानव उन कुकर्मों का
इतिहास लिखुँ
डूब न जाए ये दुनिया
जो सत्य अटल परिहास लिखूं
समझ नहीं आता मुझको मैं
किस किस का
कर्म विहान लिखूं ||
सोच रहा हूँ रहने दूँ
काहे झंनझट में पडूँ व्यथा
जिसकी करनी वो भुगतेगा
मैं व्यर्थ कुचक्री के
पथ में कंटक कर्म
प्रयास , बनूँ ||
तुम काहे व्यर्थ कटु वचनों से
अपना भाव प्रतान लिखूं
दर्द छुपा जिन आँखों में
उन आँखों की बरसात लिखुँ
या फिर लूट रहे मानव
बन दानव उन कुकर्मों
का इतिहास लिखुँ ||
लूट रहा है नौच रहा है
गिद्ध रूप धर ये मानव
इंसानी पीड़ा को ही
समझ रहा मौक़ा मानव।
संसाधन की कमी को
देखो कैसे धन अर्जन ही मान लिया।
धर्म कार्य करने थे जिस पल
उस पल को संचय संज्ञान लिया ||
स्याही रो रही, कलम बिलख रही
शब्द मेरे चुक आये हैं
लिख न सकूं अब और मैं आगे
पोर पोर हैं दुःख आये
दर्द छुपा जिन आँखों में
उन आँखों की बरसात लिखुँ
या फिर लूट रहे मानव
बन दानव उन कुकर्मों का
इतिहास लिखुँ
वीणा के तारों ने छोड़ा अनुशासन का पर्व
अष्टम स्वर में छेड़ रही अब पीड़ा के सन्दर्भ।
मेरा पूरा जीवन दहला लेकिन अरि का सिंहासन न डोला।
घूम घूम कर नाटक करता, संशय में उत्सर्ग।
चलो आज हम सुने आपकी, गद्य पद्य में रचना को।
आलेखों के माध्यम से जो हुई उजागर व्यर्थ।
जिन नयनों ने जग को त्यागा पीड़ा जब हुई असहज।
उन आँखों की बरसात लिखुँ या फिर लूट रहे हैं
मानव बन दानव उन कुकर्मों का इतिहास लिखुँ ।