सामंजस्य दिलदिमाग और जिस्म के बीच
कैसे सामंजस्य बिठाती होगी
दिल,दिमाग और जिस्म के बीच
कैसी मज़बूरी होगी
रोटी के निवालों और
सांसों की डोरी के बीच
कितना अजीब शब्द है
ये धंधा
दाल रोटी कपडा बेचे
तो सब इज्जत देते
और वो मजबूर
अपना जिस्म बेचती
यही इज्जतदार
रात के अंधेरे में
छिप छिप कर जाते देखे है
इन्हीं बदनाम गलियों में
वो बदनाम है
धंधा करती है
अपने जिस्म का
गाला घोटती अपनी ख्वाइशों का
कत्ल करती अपनी भावनाओं का
बेमन से बिस्तर बन जाना
क्या इतना आसान है
अपने आप को मरवाना
अपने जिस्म को नुचवाती
चंद सिक्कों की खातिर
ये चंद सिक्के ही तो
उसके बच्चो को पालते
कितना असहनीय दर्द
अपने अंग-प्रत्यंगों को
अपने हाथों मसलना
बेहद तकलीफों
को सहकर भी जी रही वो
गजब का सामंजस्य बिठाया उसने
दिल दिमाग,जिस्म और समाज के बीच।
आरती लोहनी